कहानी

कहानी – आशिष-सुमन

मैं एक शादी पर गया और शगुन की रस्म अदा करने के बाद वहां भोजन हाल में भोजन शुरू करने के लिए प्लेट उठाने लगा तो एक बालक ने नमस्कार करते हुए मेरे पांव छुए। मैंने उसे आशीर्वाद तो दिया परन्तु उसे पहचान न सका। सोचा, कोई परिचित होगा, कोई जान-पहचान वाला होगा। मेरी सोच की पकड़ में वह आया नहीं। खैर! मैं भोजन के लिए प्लेट उठाने आगे बढ़ा तो उस लड़के ने बड़े इत्मीनान से, प्यार-सत्कार से, थोड़ा मुस्कुराते हुए, अपनत्व भरे भाव से एक प्लेट उठाई, कंधे पर रखे तौलिए से उसे साफ़ किया, थोड़ा मुनासिब सलाद और एक चम्मच मुझे देते हुए विनम्र भाव से कहा, सर, लीजिए! और जल्दी-जल्दी से जाता हुआ वह एक बहरे से कह गया, कि सर को किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो ध्यान से यहीं दे देना। भीड़ काफ़ी थी। मैं फि़र भी उसे पहचान न पाया और न ही पूछ सका, कि बेटा, तुम कौन हो? मैंने भोजन तो कर लिया पर मेरा मन उस लड़के के बारे में ही सोचमग्न रहा। आखिर में मैंने उस बहरे से ही पूछा, बेटा, वह लड़का कहां है? जो मेरे बारे तुम्हें कह कर चला गया था। उस बहरे ने कहा, सर, वह वहां नान बना रहा है। मैं उसके पास गया, वह तपाक से सारा काम छोड़ कर, तौलिए से हाथ साफ़ करता हुआ मेरे पास आ गया। आते ही उसने विनम्र भाव से कहा, सर, आप ने मुझे पहचाना नहीं। मैंने मस्तिष्क में अतीत के आईने से झांकते हुए बहुत कोशिश के बाद उसको कहा, बेटे, नहीं। मैंने तुझे पहचाना नहीं। उसने आंखों में नमी भरते हुए कहा, सर, मैं दीपू हूँ। आप से पढ़ता रहा हूँ, सर। मैं उसका नाम सुनते ही हैरान रह गया। मेरे मस्तिष्क में वे दिन चल-चित्र की तरह दौड़ने लगे। मैंने विस्मित होकर कहा, बेटे, तू नान बना रहा है? तू तो इतना मेधावी, होशियार लड़का था। प्रत्येक परीक्षा में तू तो मैरिट में आता रहा था। आठवीं श्रेणी में तो बोर्ड की परीक्षा में मैरिट सूची में तेरा नाम था। तूने क्या हुलिया बना रखा है। इस चेहरे पर अभी से झुरियां, अपरामता, बुझी-बुझी सी बोझल आंखें, क्या हो गया तुझे? तू आगे पढ़ा नहीं क्या? मैं तो सोचता था कि तू एक दिन बहुत बड़ा पदाधिकारी बनेगा। तू आगे क्यों नहीं पढ़ा? मैंने उसके गंदले रूखे-सूखे बालों पर हाथ फ़ेरते हुए कहा।

उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, वैसे ही जैसे स्कूल में पकड़ा करता था किसी समस्या के समाधान के बारे में पूछते समय और मुस्कुराते हुए कहने लगा, सर, क्या बताऊं? आठवीं श्रेणी को पास करके मैं दूसरे स्कूल में चला गया था। दसवीं श्रेणी पास करने के बाद जब मैं ग्यारहवीं श्रेणी में प्रवेशार्थ एक अन्य स्कूल में दाखिल हुआ, पर भाग्य की विडम्बना कि एक माह के भीतर ही एक दिन पिता जी शाम को मज़दूरी करके साईकल पर आ रहे थे कि एक शराबी ट्रक वाले ने उनको कुचल दिया और वह मौके पर ही दम तोड़ गए। ट्रक का पता ही नहीं चला। अभी एक सदमा भूला नहीं था कि दो माह के बाद ही माता जी हार्ट अटैक से पूरी हो गई। और इस से घर में एक छोटी बहन और एक छोटे भाई का दायित्व मेरे कंधों पर आ गया। सर, सब रिश्तेदारों ने, सगे संबंधियों ने साथ छोड़ दिया। सर, इस मुसीबत में कोई न बना, किसी ने साथ न दिया। हम तीनों भाई बहन, रात भर मां और पिता जी को याद करके रोते रहते। घर में हमारे भाग का केवल एक ही कमरा था। क्योंकि दो चाचा थे। वे भी मज़दूरी, मेहनत-दिहाड़ी ही करते थे। रोटी चलाने के लिए कोई न कोई काम तो करना ही था। मज़बूरन इस काम से सन्तोष करना पड़ा। यह हलवाई हमारे गांव का है। सौ रूपए दिहाड़ी पर मैं इस के साथ काम करने आ जाता हूँ। लगभग दो सालों से यह काम करता आ रहा हूँ।

मैंने दीपू को प्यार से गले लगा लिया और अपने दिल में संकल्प ले लिया कि दीपू को पढ़ाऊंगा। अध्यापक का दायित्व होता है कि वह मेधावी छात्र की सहायता करें साधन विहीन छात्रें का मार्ग दर्शक बन कर उनके भविष्य को उज्जवल बनाने का प्रयास करे।

दीपू बेटे, तू आगे पढ़ सकता है। मैं चाहता हूँ तू इस काम के साथ-साथ प्राईवेट पढ़ ले। मैं तेरी मदद करूंगा। तू किसी दिन मेरे घर आना। मैंने उसे पता समझा दिया। वह मेरी बात मान गया। मैं उसे आशीर्वाद देकर वापिस लौट आया।

मैं शाम को घर के आंगन में बैठा एक पुस्तक पढ़ रहा था। बाहर बैल हुई, मैंने गेट खोला तो दीपू। एक आशा की किरण लिए, जिंदगी का संकल्प लिए। उसकी आंखों में एक चमक सी दिखाई दी, वह भविष्य को रौशन करना चाहती है।

मैंने पत्नी को आवाज़ देकर चाय बनवाई। बातों के सिलसिले के साथ-साथ हम दोनों ने चाय पी। उसको मैंने कुछ महान व्यक्तियों की जीवनशैली के बारे बताया। श्री लाल बहादुर शात्री, सिख गुरूओं, रूसो, दीदरो इत्यादि की जीवनियां, उनके संकल्प, उनकी समाज को देन आदि के बारे में बता कर मैंने उसके हृदय में भविष्य को उज्जवल बनाने का बीज बो दिया, जिसको उसने अन्तरात्मा से स्वीकार कर लिया था।

मैंने कपड़े पहने। दीपू और मैं बाज़ार गए। वहां से ग्यारहवीं कक्षा की पुस्तकें खरीदीं और उसका प्राईवेट दाखिला भेज दिया। पुस्तकें देते हुए उसको मैंने फि़र समझाया था, जिंदगी का अर्थ क्या है? दीपू, जिंदगी में हमेशा इन्सान को आशावादी होना चाहिए। बेटा, निराशावादी लोग तरक्की नहीं करते। उनके फ़ूलों में सुगंधि नहीं होती इत्यादि। दीपू ने जाते समय प्रण किया। मैं पढूंगा। उसने मेरे पांव छुए और भविष्य की दहलीज़ पर ख़ूबसूरत प्राप्तियों के बंदनवार सजाने के लिए चल दिया मंज़िल की ओर।

दीपू हलवाई के काम के साथ-साथ दिल लगा कर पढ़ता। हलवाई का काम रोज़ नहीं मिलता था। किसी समागम या ब्याह-शादियों में ही काम मिलता था उसे। शेष समय वह पढ़ता और भाई-बहन को भी साथ-साथ पढ़ाता। बीच-बीच मेरे से सलाह-मश्वरा करने के लिए आता-जाता रहता।

समय का घोड़ा दौड़ता गया। समय का सूर्य उसी का है जो उसे अपना ले। समय के साथ जो चलते हैं वे समय के देवता कहलाते हैं। सूर्य की भांति जो चलते हैं वहीं महानता के पर्व बनते हैं।

दीपू ने ग्यारहवीं और बारहवीं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। अगले ही माह में एक अखबार में जे-बी-टी- अध्यापकों के दो वर्षीय कोर्स का मैंने विज्ञापन पढ़ा। उसका मैंने फ़ार्म भरवा दिया। उसको मैरिट में दाखिला मिल गया। हलवाई के काम के साथ-साथ अब वह सुबह-सुबह अखबारें बांटने का काम भी करने लगा था। समय कब बीता पता ही न चला। इसी बीच मेरा स्थानांतरण किसी दूसरे शहर में हो गया। दीपू को मैंने बताया, मेरी तरक्की होने की वजह से मेरा स्थानांतरण हो गया है। दूसरी बात यह है कि दीपू, मैं अपने ही घर चला गया हूँ। किसी भी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो मुझे याद कर लेना या मेरे पास आ जाना। देखो बेटा, जिंदगी कोई इतनी लम्बी नहीं है, चुटकी से बीत जाती है जिंदगी। मैं अब कितने वर्षों का हो गया हूँ। तू ही अपनी आयु को ले ले, क्या ऐसे नहीं लगता कि इतने वर्ष चुटकी से बीत गए? बस, समय को बांध लो मेहनत के आंचल से फि़र यह धरती, यह आसमां तुम्हारा है।उसे समझाते हुए मैंने घर का पता दे दिया।

जिस दिन मैंने जाना था, दीपू हमें बस-स्टैंड पर छोड़ने आया था। पैर छू कर गले मिला। आंखों में आंसू भर लिए, सर!कह कर उसने आगे शब्द रोक लिए, जिन्हें मैं समझ गया था। मैंने उसे तरक्की भरा, आशीर्वाद दिया और कहा, दीपू, पढ़ना मत छोड़ना। तू एक दिन महान व्यक्ति बन सकता है। देखो बेटा, मस्तिष्क एक ऐसी धरती है जिसमें निष्ठा पूर्वक परिश्रम से कोई भी फ़सल बोई जा सकती है।

मैं अपने शहर आ गया। दीपू के गांव से मेरा शहर कोई 150 किलोमीटर दूर था।

मैं अब सेवा-निवृत हो गया था। दीपू का ख्याल भी मन से ओझल हो गया था। घरेलू जिम्मेवारियों में, रिश्ते नातों में, समाज में रह कर इन्सान क्या-क्या भूल जाता है, कुछ पता नहीं चलता। वैसे भी बढ़ती आयु के तकाज़े में याददाश्त-स्मरणशक्ति क्षीण हो जाती है, नज़र कम हो जाती है। आंखों का फ़ैलाव कानों को छूने लगता है। शरीर में पहले वाली क्षमता नहीं रहती। मेरे सारे बाल सफ़ेद हो चुके थे। चेहरे पर झुरियों का साम्राज्य था। दांत भी कुछ ही शेष बचे थे। सेवा निवृत हुए कोई दस वर्ष हो गए थे।

एक दिन मैं पैंशन लेने के लिए बैंक में गया। कुछ लेट हो गया था। बैंक में पहुंचा तो एक क्लर्क (लिपिक) ने कहा, अब आप लेट हो चुके हैं, कृपया कल पैंशन ले लेना। आज नए साहिब आए हैं, उनकी प्रथम आमद में पार्टी होने वाली है।

मैं बैंक के गेट से बाहर होने वाला था, कि पीछे से किसी ने झुक कर मेरे पांव छू कर मुझे बगल में ले लिया। एक अपटूडेट आकर्षक व्यक्तित्व ने बगल ढीली करते हुए कहा, सर, आईए मैंने चश्मे से झांकते हुए गौर से देखा। थोड़ी देर पहचानने में लगी। दीपू—तू!

हां, सर! वह मुझे मैनेजर वाले कमरे में ले गया। मैंने चलते-चलते कहा, तू यहां कैसे आया है?

सर, आप बैठिए तो सही। उसने मुझे जबरदस्ती मैनेजर वाली कुर्सी पर बिठा दिया। मैंने बहुत इन्कार किया, कि यह तू क्या कर रहा है? पर वह मेरी अब बात मानने वाला कहां था। भाई, यह सब क्या कर रहे हो?

उसने बैल दी। एक चपड़ासी (सेवादार) आया और उसका इशारा समझ कर दो ग्लास ठंडा ले आया।

सर, मैं आप के शहर में इस बैंक में मैनेजर बन कर आया हूँ, सर।यह सुनते ही मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। मेरी खुशी का पक्षी आसमान को छूने लगा। मैं सब भूल गया, कि मैं कहां आया था।

सर, आज पार्टी में आप भी मेरे साथ शामिल होंगे।पार्टी का प्रबन्ध हो चुका था। दीपू ने मेरी बांह पकड़ कर मुझे पार्टी में मेहमान (अतिथि) वाली उस कुर्सी पर बिठा दिया जिस पर उसने स्वयं बैठना था। पार्टी से पूर्व दीपू ने मेरा संक्षिप्त सा परिचय दिया। सब को बहुत खुशी हुई। बैंक कर्मियों में मेरी इज्ज़त, मान-सम्मान बहुत बढ़ गया।

पार्टी खत्म होने के बाद दीपू और मैं उसकी गाड़ी में बैठ कर घर आ गए। रास्ते में दीपू ने मिष्ठान का डिब्बा ले लिया। घर पहुंच कर मैंने समस्त परिवार से उसकी मुलाकात करवाई।

मैंने दीपू से उत्सुकता और जिज्ञासा से पूछा, कि तूने जे-बी-टी- करने के बाद क्या किया? कैसे रहा? परिवार कैसा है इत्यादि?

उसने बताया कि सर, आप मुझे हिम्मत और धैर्य का बल देकर चले गए। बुझे दीपक को तेल और बाती देकर। जिसकी रौशनी अब आप देख रहे हैं सर। मैंने दिन रात मेहनत की। एक गांव में अध्यापक लग गया। साथ-साथ पढ़ता भी रहा। बहन की शादी की। भाई पढ़ रहा है। अध्यापक रहते हुए प्राईवेट बी-ए- की। बी-ऐ- की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। अखबार में प्रोबेशनरी आफि़सर का विज्ञापन निकला। उस टैस्ट से मैं मैरिट पर रहा। प्रोबेशनरी आफि़सर के बाद अब यहां आप के सामने हूँ, सर। उसके नेत्रें की ज्योति से मेरे नेत्रें की ज्योति मिल कर आलोकित हो उठी।

उसने कहा, सर मैं आपको बहुत याद करता रहा। पर क्या बताऊं सर, घर की जिम्मेवारियों ने सिर उठाने नहीं दिया। सर, आप द्वारा आरोपित पौधा अंकुरित, पुष्पित, फ़लित होकर अब अपनी महक फ़ैला रहा है। जिसका श्रेय सर, केवल और केवल मात्र आप के आशीर्वाद को ही है। ऐसा कहते हुए उसने अपना सिर मेरी गोद में टिका कर स्नेह भरी दृष्टि मेरे मुख पर टिका दी। मैंने ऐसा महसूस किया जैसे दुनिया का सब से दीर्घ सम्मान आज मुझे मिला है, केवल मुझे।

— बलविन्दर ‘बालम’

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409