कविता

ख्वाबों क़ी खातिर

अपने ख्वाबों क़ी खातिर
दौड़ता ही रहा
और दौड़ कर
बहुत दूर निकल गया
इस दौड़ मैं
मेरे ख्वाब तो पूरे हुए
पर मैं  अधूरा रह गया
न लौट सका  फिर वापिस
अपनों से बहुत  दूर हो गया
जब भी  देखता  हूँ पीछे मुड़कर
खुद को अकेला खड़ा  पाता हूँ
रात जब गहराती है
नींद आँखों  से कोसों दूर
एक अतृप्ति
दिल के एक कोने में बसी  होती है
सब कुछ  पाने के बाद  भी
जैसे  सब कुछ में हार गया.

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020