लघुकथा

माँ

मै ब्याह कर ससुराल आई । घर की साज सज्जा बनावट बता रही थी की लब्ध-प्रतिष्ठित परिवार है।मैं नई दुलहन सिमटी सिकुड़ी ,घबराई आँगन में महिलाओं से घिरी थी कि किसी ने लगभग पांच साल का बच्चा मेरी गोद में जबरजस्ती लाकर बिठा दिया “ये माँ है तुम्हारी।माँ बोलो इनको ।” अचकचा उठी मैं ।मैं पाँच साल के बच्चे की माँ हूँ और मुझे पता नहीं ।मै तो अभी बीस साल की भी पूरी नहीं हुई।
ये तो पता था कि छह बेटियों के माँ-बाप ने रईस, सुन्दर, दहेज न लेने वाला, दुहाजू वर देखा है मेरे लिये।पर विवाह मे एक बेटा मुझे मिलेगा ,इसका संज्ञान जरा न था।
दुबला-पतला , पीली निरीह आँखे, सूखे पपडियाए होठ, प्यार कहाँ से उमड़े ।
धीरे धीरे आँगन खाली होने लगा। बच्चा अब भी मेरी गोद मे बैठा था। अचानक मेरी आँख उससे मिली, वही निरीहता आँखो में। थोड़ा मुस्कराया,बोला–“मै तुमको माँ नहीं बोलूँगा, तब मुझे प्यार करोगी न। यहाँ कोई मुझे प्यार नहीं करता ।सब मुझे कालू कहते है।”
अबकी मैने उसे गौर से देखा।सुन्दर नैन-नक्श का सलोना बच्चा। लड़की जब जन्म लेती है, तभी उसके अंदर एक माँ भी जन्म ले लेती है। “मै तुम्हे बहुत प्यार करूँगी और तुम मुझे माँ भी बोलना ।”
— सुनीता मिश्रा

सुनीता मिश्रा

भोपाल [email protected]