सावधानी और सजा में फर्क समझें बच्चे
अंतराल चाहे जहाँ भी हो, दिखता तो है ही। चाहे यह एक ही परिवार में दो पीढ़ियों के बीच ही क्यों न हो! दो क्रमागत पीढ़ियों के बीच उम्र का फासला जितना बड़ा होगा, प्रायः विचारों में भी फर्क बड़ा ही होगा। माँ-बाप और संतान के बीच यह फर्क और इससे उपजते परिणाम से हर कोई परिचित होगा।
माँ-बाप अपने अनुभव की थाती को लेकर बच्चों को सामाजिक सावधानी समझाते हैं। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे हर उस समस्या से भी निबट लें जो भेड़ की खाल में भेड़िये के रूप में आती है। माँ-बाप चूँकि 30-40 साल बड़े होते हैं। वैसी या उस जैसी समस्याओं से जूझ चुके होते हैं। उनकी सफलता या असफलता उनको सिखा चुकी होती है इसलिए वे चाहते हैं कि उनके बच्चे पहले से ही सावधानी बरतें। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छे और बुरे दोस्तों में अंतर करना सीखें। भविष्य के प्रति बच्चे सजग रहें जिससे जीवन यापन ठीक से हो। घर में आने और जाने का समय नियत हो। अपराधी-प्रवृत्ति के लोगों से उचित दूरी बनाकर रखें…..।
ये सारी सावधानियाँ हैं जो हर बच्चा को निभानी चाहिए। किंतु प्रायः बच्चे अभिभावकों द्वारा बताई गई सावधानियों को अपने ऊपर थोपी गई सजा मानते हैं।धीरे-धीरे अभिभावक और बच्चों के बीच अंतर बढ़ने लगता है। अभिभावक की हर सीख को बच्चा अनसुना करने लगता है। स्थिति ऐसी भी आ जाती है कि माँ-बाप बच्चों को समझने और समझाने की जगह कूढ़ने लगते हैं, क्षुब्ध होने लगते हैं। बच्चे भी अपने पसंदीदा सलाहकार खोज लेते हैं जो अक्सर उनकी ही तरह बिगड़ैल होते हैं।
सावधानी को सजा मानने का परिणाम बुरा ही होता है। बच्चे गलत संगत में पड़ जाते हैं और अभिभावक असहाय होकर या तो बच्चों के विरोधी बन जाते हैं या अंध समर्थक। ये दोनों ही स्थितियाँ बुरी होती हैं। इसलिए अभिभावक और बच्चों को दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए। इससे दोनों पीढ़ी आपस में जुड़ी रहेगी। किसी को किसी के बारे में अन्य से पता करने की आवश्यकता नहीं होगी। अनुभव का सदुपयोग होगा। सावधानी और सजा का अंतर स्पष्ट हो सकेगा। तब माँ-बाप द्वारा सिखाई गई सावधानी बच्चों को सजा नहीं, सीख लगेगी।
— डॉ अवधेश कुमार अवध