सावन की झड़ी
रिमझिम बारिश की ये बूंँदें, धरती पर आती।
नयी कोपलें विकसित होतीं, रहती हरियाली।
कल–कल करती नदिया बहती, होकर मतवाली।
झड़ी लगी है ये सावन की, बौछारें लाती।।
भोर सूर्य से फैली लाली, छँटती अंँधियारी।
स्वर्ण चमक ये निर्मल जल की, लगती कितनी प्यारी।
ठंडी –ठंडी सी पुरवाई, हमें गुदगुदाती।।
कली पुष्प की खिलने लगती, रमणीक बगीचे।
मिट्टी की वो सौंधी –सौंधी, क्यारी के नीचे।
इन अनुपम मोहक फूलों से मस्त महक आती।।
नमन करूंँ ये दृश्य देखकर, मुझे मिला जीवन।
देख धरा अनुराग बढ़ा है, धन्य हुआ तन मन।
इक दूजे का साथ निभाना, यह हमें सिखाती।।
— प्रिया देवांगन “प्रियू”