गुनाहों की सजा
चंद किस्से अपने ख़्वाबों के सुनाने आया हूँ,
ज़ख्म तन्हा रातों के तुमको दिखाने आया हूँ।
मुद्दतों से रोक रक्खा था जिन्हें इन आँखों में,
अपने अश्क़ों का वही दरिया बहाने आया हूँ।
चाँद, जुगनू, तितलियों, फ़ूलों से कह दे तो कोई,
उनसे उनकी हर अदा को मैं चुराने आया हूँ।
किस ख़ुमारी में लिखे थे ये तो बस जाने ख़ुदा,
सामने तेरे लिखे वो ख़त जलाने आया हूँ।
जा के बतलाये कोई तो इन सियासतदानों को,
मैं फ़रेबी वो मुखौटा अब हटाने आया हूँ।
जो चढ़ाया था कभी इस अपनी रूह-ओ-जान पर,
वो ही रंग – ए – इश्क़ मैं तेरा मिटाने आया हूँ।
छत न कपड़ा पेट खाली उसपे शब का भी कहर,
गुरबतों में तर सुकूँ सूरत दिखाने आया हूँ।
मैंने जिसको था छुपाया इस ज़माने से कभी,
हाल-ए-दिल अपना वही तुमको सुनाने आया हूँ।
मिल ही जाए आज मेरे सब गुनाहों की सज़ा,
दे के खंजर तुमको ही मन आज़माने आया हूँ।
— मनोज शाह ‘मानस’