कविता

कर्ज से मुक्ति चाहता हूं

कैसी पढ़ाई है जहां सब कुछ पढ़ना आसान तो हैपर तुम्हें पढ़ना ही नहीं समझना भीमुझे लगता है पहाड़।जितना पढ़ता हूं, तुम्हें पढ़कर अपने अनुसार गढ़ता हूं।उतना ही निरर्थक हो जाता है मेरा श्रमक्योंकि जो आकार दिया मैंनेवैसा नहीं देखा, पाया तुम्हें।नाराज होकर भी न कभी डांट पायादूर होने की सोच ने मुझे हीखूब मुंह चिढ़ाया,तुम्हें हमेशा खुश और नाराज साथ साथ पाया,मुझे खुद ने ही खूब भरमाया।जाने कैसा किस जन्म का हमारा रिश्ता हैजिसने खुशियां तो खूब दींमगर खूब रुलाया भी, आंसू दिए, पीड़ा दीन भरने वाले जख्म भी दिए,पर इसका राज नहीं जान पाया।इतना सब होकर भी न खीझ है न अफसोसन दूर होने की तनिक ख्वाहिशबल्कि ये सब क़र्ज़ जैसा लगता हैजो शायद किसी जन्म का मुझ पर शेष है तुम्हारा जिसे इस जन्म में मुझे चुकाना ही हैहमारे रिश्ते का ही तभी तो नव अनुबंध है,जीवन के उत्तरार्द्ध में तभी तो हो पाया नया संबंध है।न जान, न पहचान, न दूर दूर तक कोई रिश्ताफिर अचानक से एक सूत्र आयाऔर हमें जोड़ दिया रिश्तों के अटूट बंधन में,जिसे तोड़ने हिम्मत नहीं है मुझमेंशायद तुम्हें भी नहीं होगी,या तुम्हें अपने क़र्ज़ की पड़ी होगी,जिसे तुम जानती तक नहींपर वापस पाने की उत्कंठा तो होगी हीहोनी भी चाहिए मैं भी तो अब यही चाहता हूंकर्जदार बनकर रहना भी नहीं चाहताजीने की बात क्या करूं मरना भी नहीं चाहतामरने से पहले तुम्हारे क़र्ज़ से मुक्त होना चाहता हूं,छोटा हूं या बड़ा, बाप भाई बेटा संबंधीजो भी रिश्ता रहा हो हमाराउस कर्ज़ को निपटाकरअब आजाद होना चाहता हूं।आज के रिश्ते के इस बंधन का भीफ़र्ज़ निभाकर जाना चाहता हूं,बस जैसे भी हो तुम्हें खुशहाल देखना चाहता हूंअब हर कर्ज से मुक्ति चाहता हूं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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