कविता

भूख

स्वीकार है मुझे 

जुर्म अपना

न चाहते हुए भी कर गया 

बेबस था

भूख के आगे

मैं तो सह लेता 

पर देखा न गया

मासूमों की भूख को

उनके पेट में धधकती

भूख की आग को 

दो रोटी की खातिर

जुर्म कर बैठा

जो भी सजा दो मंजूर है

बच्चों की आँखों में देखी गई तड़फ से तो कम ही होगी 

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020