गजल
दिन जैसे गुज़रते जा रहे हैं
दोस्त अपने बदलते जा रहे हैं
समझ में आ नहीं पाया मुझे ये
रिश्ते क्यों बिगड़ते जा रहे हैं
पुराना वक्त जबसे याद आया
आँसू ही निकलते जा रहे हैं
गैरों से मिलने की मसरूफियत में
अपने गैर बनते जा रहे हैं
मंज़िल मिल नहीं सकती ये तय है
मगर हम हैं कि चलते जा रहे हैं
— भरत मल्होत्रा