करने योग्य क्या?
प्रभु (परमात्मा) की आज्ञा है किः- 1. जो वस्तु त्याग करने योग्य है उसका त्याग करो। 2. जो कार्य करने योग्य है उसे उत्तम रीति से करो। 3. जो प्रशंसा करने योग्य है उसकी प्रशंसा करो। 4. जो सुनने योग्य है उसे अवश्य सुनो। ये सभी बातें हमें बहुत आसान सी दिखती है, पर मनुष्य जीवन में इन सभी का पालन करना वास्तव में बहुत कठिन है। जब तक हम इन सभी बातों को हमारे जीवन में नहीं उतारेंगे तब तक सच्ची श्रद्धा से प्रभु आज्ञा का पालन नहीं होगा।
- त्याग करने योग्य क्या?ः- जिसको करने से हमारे चित्त की मलिनता बढ़ती है। ऐसी वस्तु, वचन और विचार त्याग करने योग्य है। हिंसा, झूठ, चोरी, असंयम, परिग्रह, अभक्ष्य, विकृतिवर्धक कुसाहित्य का पठन-पाठन आदि ये सारे दोष त्याग करने योग्य है। इनको अपनाने से प्रभु आज्ञा का लोप होता है, पाप बढ़ता है, अशुभ कर्मो का बंधन होता है एवं भव भ्रमण बढ़ता है।
- करने योग्य क्या?ः- देव, गुरु, संघ व साधार्मिक भक्ति, बाल, वृद्ध, ग्लान तपस्वी व रोगी की सेवा-सुश्रूषा, स्वाध्याय, सामायिक आदि क्रियाएँ। इन कार्यो को करने से आत्मा के गुणों का विकास होता है। पुण्य के प्रभाव से इस भव में मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ने के लिये अनुकूल सामग्री प्राप्त होती है। तप, दान, शील एवं धर्म का पालन मोक्ष मार्ग को प्राप्त करने का एक उत्तम द्वार है। मन से सभी जीवों के प्रति कल्याण की भावना, वचन से देव-गुरु की स्तुति व काया से परोपकार की प्रवृत्ति करने योग्य है।
- प्रशंसा करने योग्य क्या?ः- गुणीजनों, महापुरुषों एवं प्रशंसनीय व्यक्ति की प्रशंसा करना करने योग्य है। लेकिन अधिकतर हम अप्रशंसनीय की प्रशंसा करके पाप का अनुमोदन करने के साथ अपना भव भ्रमण बढ़ाने का कार्य करते हैं। सुकृत की अनुमोदना में आत्मा का बहुमान है, आत्मा के गुणों का सत्कार है। दुष्कृत की अनुमोदना में आत्मा का अपमान है, आत्मा के गुणों का तिरस्कार है। हम पर उपकार करने वाले के उपकार को भी हमें कभी नहीं भूलना चाहिये। अरिहन्त परमात्मा हमारे सबसे बड़े उपकारी है, सद्बुद्धि के दाता भी वही है।
- सुनने योग्य क्या?ः- सुनने योग्य बातों को ही सुनना। आज प्रत्येक व्यक्ति को न सुनने योग्य बातों को सुनने की आदत सी हो गई है। प्रभु नाम का स्मरण एवं उनकी वाणी को सुनने से हमारे पापों का नाश होता है। हमें किसी की भी निंदा, विकथा, चुगली आदि को नहीं सुनना चाहिए। यदि कोई करता है तो उस स्थान से भी हट जाना चाहिए। भूलकर भी कभी देव, गुरु, धर्म की निंदा न करना व नहीं सुनना। नित्य व्याख्यान सुनना, स्वाध्याय करना चाहिए। सुनने योग्य जिनवाणी है। जिनवाणी के अमृत में नहाने का मौका व्याख्यान सुनने से मिलता है, उससे चित्त निर्मल बनता है एवं संसार मल का नाश होता है।
सम्यग्ज्ञान- यानि मन की शुद्धि। सम्यक् दर्शन- यानि वचन की शुद्धि। सम्यक् चारित्र- यानि काया की शुद्धि।
शरीर का ममत्व छुड़ाने के लिये बाह्य तप है। मन का ममत्व छुड़ाने के लिये आभ्यान्तर तप है। शरीर को शुभ कार्य का साधन मानकर संभाल कर रखना विवेक है। किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ दूसरों के कल्याण की कामना से ही होना चाहिये। शुभ कार्य में मन एवं वचन को जोड़ना ही विवेक है। मन को शान्ति दिलाने की क्रिया ही धर्म है।
राजीव नेपालिया (माथुर)