खोए जा रहा संस्कार आहिस्ता आहिस्ता
बदल रहा मौसम हर बार आहिस्ता आहिस्ता।
दे रही है अब कुदरत मार आहिस्ता आहिस्ता।
रहा था मोल दुनियां में सद्धर्मी इस मानव का,
बन रहा है मानव खूंख़ार आहिस्ता आहिस्ता।
द्वेष ईर्ष्या नफरत क्रोध लोभ मोह की माया में,
खो रहा है दिलों का प्यार आहिस्ता आहिस्ता।
जुल्म और सितम करें बेख़ौफ़ इस जगत में,
बन रहा मानव गुनाहगार आहिस्ता आहिस्ता।
प्रेम सत्कार सदाचार सब भूल रहा है आदमी,
बदल रहें आचार व्यवहार आहिस्ता आहिस्ता।
नशा धन दौलत का खो रहा अहमियत आदमी,
पनप रहा है रिश्तों में खार आहिस्ता आहिस्ता।
इज़्ज़त बहन बेटी की बेख़ौफ़ लुटते दरिंदे अब,
होगा महाभारत इक बार आहिस्ता आहिस्ता।
आज कल के बच्चे भूले आदर माता पिता का,
मिट्टी में मिल रहा सत्कार आहिस्ता आहिस्ता।
संभल जा रे बंदे क्यों भूल रहा अपनी संस्कृति,
क्यों खोए जा रहा संस्कार आहिस्ता आहिस्ता।
— शिव सन्याल