मुक्तक
चाहत थी अपनी, तुमसे दो बातें कर पाते,
आँखों में आँखें डाल, दिल की बातें कर पाते।
नहीं जानते मन तुम्हारे, कब क्या चलता रहता,
कभी तुम्हारी सुनते, कुछ अपनी बातें कर पाते।
कभी रूबरू तुमसे बातें कर पाये न हम,
कभी तुम्हारे मन की बातें पढ़ पाये न हम।
दर्पण में एक बार तुम्हारा चेहरा देखा था,
यादों को आज तलक बिसरा पाये न हम।
— अ कीर्ति वर्द्धन