गरबों का बदलता स्वरूप
जैसे समय अविचल होते हुए भी बदलता रहता हैं,जीवन चक्र भी चलता रहता हैं,रुकना,ठहराव जीवन का अंत हैं तो परिवर्तन अपने आप ही जीवन का आवश्यक अंग बन जाता है।वह चाहे कोई भी क्षेत्र हो,शिक्षण,तकनीक,समाज आदि।
तो गरबा तो माता की आस्था का विषय हैं जिसमे निरंतर बदलाव आता रहा हैं।भक्ति भावों से भरपूर युवाओं का गरबा नृत्य दिल को मोह लेता हैं।लेकिन समय के साथ साथ परिवर्तन होता रहा हैं।पहले एक ताली से घूंघट निकाल कर औरते गरबा करती रहती थी।दो डंडियों से रस भी खेला जाता था जो कृष्ण भगवान को अतिप्रिय था।फिर धीरे धीरे ताल के साथ ही तालियों की संख्या में बढ़ोतरी हो दो,तीन और फिर चार तालियों वाले गरबे किए जाने लगे।ढोलक के साथ किए जानें वालें गरबों में अधिक साज़ आते गए और अब तो डीजे की ताल पर गरबे खेलने लगे हैं।
गरबा नृत्य माता के प्रति आस्था का नृत्य हैं जो अनगिनत सालों से गुजरात में और अब देश के विविध प्रांतों के साथ साथ विदेशों में भी किए जाते हैं।प्रचलित होने की वजह से या ज्यादा जगहों पर इसका प्रचलन होने से इस कला मेंनूं जगहोंं के प्रभावों का असर देखने मिलता हैं। जिसमें फिल्मी दुनियां का असर कुछ नृत्य में और गायन दोनों में देखने को मिलता हैं उतना ही प्रभाव
वेशभूषा में देखने मिलता हैं।
जो बदलाव या परिवर्तन अच्छे के लिए होता हैं वह सदा आवकार्य होता हैं लेकिन जिस परिवर्तन में कला की मान मर्यादाका उल्लंघन होता हो वह इच्छनीय परिवर्तन नहीं होता हैं।गरबे हर गली महोल्ले में खेले जाते थे जिसने धार्मिक,सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों को आवारित किया जाता था,कला तो थी ही।किंतु आज कल उसे व्योपारिक,धंधाकीय द्रष्टि से क्लबों और आयोजित जगहों पर भौंडे गानों और फिल्मी तर्जो पर अजीब से नृत्य किए जा रहे हैं वह संस्कृति का हनन है,कला की मर्यादा का उल्लंघन हैं।युवा युवतियों के प्रेम प्रदर्शन का स्थान बन कर रह जाना योग्य नहीं हैं।संस्कृूति का अवमूल्यन करने वाले परिवर्तन सदा ही अवांछनीय रहे हैं।
— जयश्री बिर्मि