सूखी कली
क्या गुनाह थी मेरी,
जो मैं खिल न पाई ?
इस जहांँ को अपने नैनों से,
न मैं देख पाई।
मेरी भी शौक थी,
हंँसने-मुस्कुराने की।
क्या जुर्म किया मैं,
जिसकी ये सजा पाई ?
थी मेरी भी हसरत,
इन डालियों में झूमने की।
थी मेरी भी तमन्ना,
इन वादियों में नाचने की।
पर हाय ! देखो तो सही,
ये कैसी मैं संयोग पाई ?
क्या मैं सूखने के लिए ही,
इस दुनिया में आई ?
मैं क्यूंँ न खिली,
क्यूंँ न जग को महका पाई ?
क्या ये भूल थी मेरी,
जो इस बाग में मैं जीवन थी पाई ?
न खिल पाई कभी मैं,
सीधे सूखी और मौत पाई।
कैसी भेदभाव के,
देखो मैं चपेट में आई ?
क्या गुनाह थी मेरी,
जो मैं खिल न पाई।
— अमरेन्द्र