कविता

सूखी कली 

क्या गुनाह थी मेरी,

जो मैं खिल न पाई ?

इस जहांँ को अपने नैनों से,

न मैं देख पाई।

मेरी भी शौक थी,

हंँसने-मुस्कुराने की।

क्या जुर्म किया मैं,

जिसकी ये सजा पाई ?

थी मेरी भी हसरत,

इन डालियों में झूमने की।

थी मेरी भी तमन्ना,

इन वादियों में नाचने की।

पर हाय ! देखो तो सही,

ये कैसी मैं संयोग पाई ?

क्या मैं सूखने के लिए ही,

इस दुनिया में आई ?

मैं क्यूंँ न खिली,

क्यूंँ न जग को महका पाई ?

क्या ये भूल थी मेरी,

जो इस बाग में मैं जीवन थी पाई ?

न खिल पाई कभी मैं,

सीधे सूखी और मौत पाई।

कैसी भेदभाव के,

देखो मैं चपेट में आई ?

क्या गुनाह थी मेरी,

जो मैं खिल न पाई।

— अमरेन्द्र

अमरेन्द्र कुमार

पता:-पचरुखिया, फतुहा, पटना, बिहार मो. :-9263582278