बलम बिकै चाहे सौत बिकै
युग -युग से चली आ रही प्रथाओं और परंपराओं को यों ही नहीं भुलाया जा सकता।ये प्रथाएँ और परंपराएं आदमी का संस्कार बन जाती हैं। बन भी चुकी हैं।1976 ,1977 में बाबा नागार्जुन के उपन्यासों पर शोध कार्य करते समय मैंने पढा कि उनके ‘रतिनाथ की चाची’ , ‘बाबा बटेसरनाथ’ आदि हिंदी – उपन्यासों में ‘बिकौवा प्रथा’ का गुणगान डंके की चोट पर किया गया है। इसके लिए बिहार के मिथिलांचल में वहाँ के मैथिल ब्राह्मणों द्वारा विधिवत मधुबनी जिले में प्रतिवर्ष “सौराठ ” के मेले नाम से एक बृहत आयोजन किया जाता है।इस मेले में विवाहार्थी पुरुष और वरार्थी कन्याओं के पिता एकत्र होते हैं ।वे अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वहाँ से लड़कियों को अपनी दुलहिन बनाने के लिए खरीद लाते हैं।इसीलिए इसे “बिकौवा प्रथा”कहा जाता है।उनके द्वारा साठ सत्तर या इससे अधिक आयु में ग्यारह -ग्यारह या इक्कीस – इक्कीस शादियाँ करना स्वाभाविक बात मानी जाती रही है।जब एक – एक पुरुष बहु विवाह करेगा तो यह स्वाभाविक ही है कि बच्चे भी ज्यादा ही उत्पन्न होंगे। और यदि लड़कियों की संख्या अधिक हो गई तो उन लड़कियों को जरूरतमंदों को बेच देना और कुछ धन अर्जित कर लेना उनकी आवश्यकता ही बन जाती है।ऐसे -ऐसे भी ‘ युवा महापुरुष? ‘ हुए हैं ,जिन्होंने अपने जीवन में इक्यावन शादियाँ कीं और एक नए इतिहास की स्थापना की ।यह तथ्य कोई कपोल- कल्पना नहीं है।
आज हमारा महान भारतवर्ष भी उन प्राचीन प्रथाओं और परंपराओं का निर्वाह बखूबी करने में जुटा हुआ है।यहाँ स्व-अस्मिता से लेकर हर भौतिक और अभौतिक वस्तु किंवा तत्त्व की दुकानें खुली हुई हैं। बराबर व्यापार चल रहा है। बेचने-खरीदने के लिए क्या कुछ शेष है ?लोगों के ईमान कब से बिकते चले आ रहे हैं। संतान बिकना सामान्य-सी बात हो गई है। स्वयं माँ -बाप ,हॉस्पिटल की नर्सें ,दलाल किसी की संतान को जरुरतमंद लोगों को बेचकर 'पुण्यार्जन' कर रहे हैं। । वे रात के अँधेरे में निसंतान को सन्तानवती और संतानवान बनाने में जुटे हुए हैं। मानो विधाता का काम उन्होंने भी सँभाल लिया है।बल्कि कहना ये चाहिए कि विधाता का काम हलका कर दिया है।
आटा,दाल, सब्जी, मसाले, गुड़,चीनी, फल,फूल ,दवाएँ, आदि की खरीद -फ़रोख़्त अब घिसी -पिटी बात हो चुकी है।अब तो हम और आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि ऐसी -ऐसी चीजें भी देश के 'बृहत बाज़ार' बिक रही हैं ,बिक चुकी हैं और रही - बची बिकने के लिए तैयार की जा रही हैं।ये 'बिकौवा प्रथा' निश्चय ही महान है। बैंक,बीमा, स्टेशन,हवाई अड्डे, रेलगाड़ी,सड़कें, पटरियां,पुल, सीमेंट ,सरिया ,स्टील,चारा, पैट्रोलियम पदार्थ आदि - आदि क्या कुछ नहीं बिका या बिक रहा! बस खरीदार चाहिए।जैसा विक्रेता वैसा ही क्रेता भी हो ,तो बात बने।अंग्रेजों ने व्यापार के लिए आकर ही तो देश भर को खरीद लिया ! पुरानी परंपराएं सहज नष्ट नहीं हो पातीं।जैसा युग वैसी खरीद -बिक्री। अब सोचिये भला आलू -गोभी बेचने वाला बेचारा कुंजड़ा क्या खाकर रेलगाड़ी या स्टेशन बेचेगा या खरीदेगा। विक्रेता और क्रेता की औकात भी तो तदनुरूप होनी चाहिए।
अपनी आन -बान और शान की रक्षा के लिए आदमी व्यापार करता है अर्थात बेचने - खरीदने का धंधा करता है।आज तो सारा देश ही बनिया हो गया है ,व्यापारी हो गया है।पूँजीपति शिक्षा बेचने का धंधा कर रहा है ! स्व वित्त पोषित समस्त संस्थानों का यही कार्य है।गहराई में जाकर पता चलेगा कि उन्हें किसी को शिक्षा मिलने या न मिलने से कोई मतलब नहीं है।शिक्षालय हथकंडों से चलाए जा रहे हैं।न शिक्षक पढ़ाना चाहता है और न छात्र पढ़ना ही चाहता है। उससे पढ़ने के अलावा कुछ भी करवा लो। बस पढ़ने की मत कहो।नम्बर चाहिए शत- प्रतिशत ।यह कॉलेज का ठेकेदार मालिक जाने कि उसे क्या करना है ! पैसा चाहे जितना ले लो ,पर नम्बरों से पेट भर दो।योग्यता को कौन पूछता है? बस डिग्री का कोरा पट्टा चाहिए।यही मानसिकता आदरणीय पूज्य पिताजी और आदरणीया पूज्या माताजी की भी रहती है। फिर क्या 'पढें फ़ारसी बेचें तेल ,ये देखो कर्ता के खेल।' चार -पाँच दशकों पहले एक लोकगीत बहुत लोकप्रिय हुआ था: ---
‘चाहे बिक जाय हरौ रुमाल
बैठूँगी मोटर कार में।
चाहे सास बिके चाहे ससुर बिके,
चाहे बिक जाय ननद छिनार, बैठूँगी मोटर कार में।
चाहे जेठ बिकै चाहे जिठनी बिकै,
चाहे बिक जाए सब घरबार,
बैठूँगी मोटर कार में।
चाहे दिवर बिकै दिवरानी बिकै
चाहे बिक जाए सब ससुराल,
बैठूँगी मोटर कार में।
चाहे बलम बिकै चाहे सौत बिकै
चाहे बिक जाय सासु कौ लाल,
बैठूँगी मोटर कार में।
नई ब्याहुली मोटर कार में बैठने के लिए सास -ससुर, घर -बार,जेठ -जेठानी, ननद,देवर -देवरानी, बलम ,सौत सब कुछ दाँव पर लगाने के लिए तैयार है। यही स्थिति आज एक जुवारी -शराबी की तरह देश की भी है।सत्तासन के लिए कुछ भी बेच देने की बात देखी और अनुभव की जा रही है। पर कहावत यह भी तो है कि ‘जबरा मारे और रोने भी न दे।’ ज़ुबान से बोलना तो दूर एक आँसू बहाना भी गुनाह है।कुल मिलाकर देश इन्ही की पनाह है।देश को गुलामी की ओर पुनः ले जाने का जबरदस्त व्यापार !मानों विक्रेताओं के सिर पर चढ़ा हुआ है खुमार। क्या करें साहित्यकार और क्या करें रचनाकार ! निकाल ही सकता है लिख -लिख कर मन का गुबार। बिका हुआ है टी वी और अख़बार।फिर क्या जो दुकानदार चाहें छपते हैं वही समाचार। शायद दुकानदारी से खुलता हो विकास का नवम द्वार!
— डॉ.भगवत स्वरूप ‘शुभम्’