शुक्र है भगवान का
“अरे! वर्मा जी, कहाँ जा रहे है? कहीं घूमने जा रहे हैं क्या?”
“हाँ, ऐसा ही समझ लीजिए, भाई साहब!”
“मतलब आप जा तो रहे हैं लेकिन घूमने नहीं। किसी विशेष प्रयोजन से कहीं जा रहे हैं।”
“हाँ, मैं अहमदाबाद जा रहा हूँ। कल बड़े बेटे का फोन आया था और कह रहा था कि माँ बीमार है।”
“मतलब, आपकी मिसेज अहमदाबाद में रहती हैं?”
“जी, सैनी जी! मैं यहाँ छोटे बेटे के पास रहता हूँ और श्रीमती जी बड़े बेटे के पास अहमदाबाद में रहती हैं। वह क्या है कि दोनों के घर छोटे हैं न। दोनों के वहाँ माँ-बाप को एक साथ रखने की जगह नहीं है।”
“क्या जमाना आ गया है? माँ-बाप को रखने में भी बच्चे हिसाब लगाते हैं। माँ-बाप तो बच्चों का पालन-पोषण करने में कभी हिसाब नहीं लगाते।जगह की भी कोई समस्या नहीं होती।”
“आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। पर क्या करें? बची हुई ज़िंदगी इन्हीं लोगों के सहारे काटनी है।”
“भाई साहब! मैं शुक्रगुज़ार हूँ ईश्वर का कि एक ही बेटा है,इसलिए मियाँ -बीवी दोनों एक साथ ही रहते हैं। दो होते तो शायद आपकी…….।”
डाॅ बिपिन पाण्डेय