ग़ज़ल
ये न था सिल अधर मुकर बैठा
मुझ प’ दो शब्द में कँहर बैठा
हैसियत कुछ नहीं बची उसकी
यार औक़ात पर उतर बैठा
वो मटरगश्त चौमुहानी तक
मैं कहाँ से कहाँ गुज़र बैठा
तुनकियों का मिज़ाज उसका है
तोड़कर आइना बिफर बैठा
लग रहा है उसे ज़माने से
मर गए लोग वो अमर बैठा
प्यार का नाम तक नहीं लेता
नफ़रतों से तमाम भर बैठा
है सभा बेवक़ूफ़ लोगों की
सो, महामूर्ख मंच पर बैठा
— केशव शरण