चितभामिनी
मनमोहनी, चितभामिनी,
करती शृंगार नितयामिनी।
नार नवेली, गजगामिनी,
मुझको रिझाये क्यूँ कामिनी ?
मदभरी उदित तेरी यौवना,
खनका न चूड़ी कँगना।
भर लूँ न मैं आलिंगना,
अनुरागी हूँ मैं आशना।
प्रेम हया में तेरे झूके नयन,
नथ कहे री उतार सजन।
जले मेरा तन ये कैसी अगन,
कर अंगीकार और बुझा तपन।।
चूमूंँ मैं लब औ रची हथेलियाँ,
सहुँ मैं दंश औ देह की उर्मियाँ।
करूँ मैं समर्पण अर्थ बोलियांँ,
यूँहिं छायी रहे मदहोशियांँ।।
उद्वेग बढ़ाती ये अंगभंगिमा,
शनै: वैकुंठ पाती देहउष्णिमा।
सौंपू मैं, तू मुझको सौंप प्रियतमा,
हुए दो मन अब एक आत्मा।।
— राजश्री राज