कविता

हम सबकी थाली एक जैसी हो

सुबह के नास्ते से लेकर रात के खाने तक , 

सबके  नसीब में   , सब कुछ नहीं मिलता। 

पहला वर्ग –

सुबह के समय पैसेवालों  के प्लेट में –

काजू ,किशमिश, बादाम, 

खजूर , छुहारा , अखरोट , 

इलायची आदि 

हर किसी को खाने के लिए नहीं मिलता, 

क्योंकि; इनके दाम बहुत हैं। 

दूसरा वर्ग – सामान्य प्लेट   – 

बासी रोटी , दही  – गुड़  , दूध, छाछ, 

बिस्कुट , नमकीन, एक कप चाय, 

शायद , सबको आसानी से मिलता होगा, 

पर, इनका भी मूल्य कम नहीं है। 

तीसरा वर्ग –

कुछ के प्लेट  में कुछ भी निश्चित नहीं होता , 

रुखा  – सूखा जो भी मिल जाए , 

कुछ को तो  पानी के सिवा कुछ भी  नहीं मिलता । 

चेतना प्रकाश से कहती –

किस्मत  बनाने के लिए कर्म करना पड़ता है , 

कुदरत का  है संकेत, चेतनावान बनो! 

गुणवान बनो! धनवान बनो! 

किन्तु , अभिमानी न बनो ! 

परिश्रम ख़ूब करो! , सबके भाग्य में सब कुछ हो , 

बस , हम सबकी थाली एक जैसी हो । 

— चेतना प्रकाश चितेरी

चेतना सिंह 'चितेरी'

मोबाइल नंबर _ 8005313636 पता_ A—2—130, बद्री हाउसिंग स्कीम न्यू मेंहदौरी कॉलोनी तेलियरगंज, प्रयागराज पिन कोड —211004

One thought on “हम सबकी थाली एक जैसी हो

  • डॉ. विजय कुमार सिंघल

    आपकी बातें बहुत ऊँचे दर्जे की लगती हैं, परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। आजकल तो एक परिवार में भी सभी की थाली एक जैसी नहीं होती। सबकी अपनी-अपनी पसन्द और नापसन्द होती हैं। आपको कहना चाहिए कि लोग इतना कार्य और परिश्रम अवश्य करें कि वे अपने पसन्द का भोजन दिन में दो या तीन बार कर सकें। दूसरों की थाली को ताकने की आवश्यकता ही नहीं है। धन्यवाद।

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