कविता कविता – बुढ़ापे का दर्द निर्मल कुमार डे 06/03/202406/03/2024 खुँटी पर टँगा पुराना कोट जैसी हो गई है जिंदगी परिवार में “हूँ” भी, “नहीं हूँ” भी; काश इंसान भी होता कोट जैसा निर्जीव, संवेदना शून्य; बुढ़ापे के दर्द का अहसास नहीं होता। — निर्मल कुमार दे