वो तो पागल है…
सुनसान सड़क पर
कलेजे से लगाए
नवजात शिशु को,
चली जा रही थी
बेखौफ निडर,
ममता की प्रतिमूर्ति
शिशु की मां थी|
रो नहीं रहा था,
पीयूष नहीं पी रहा था,
बस वह दौड़ पड़ी,
ढूंढने एक अस्पताल|
जो जगाये बच्चे को,
वो स्तनपान करा सके|
मिला उसे अस्पताल
चिकित्सक को बताया,
बच्चे को लिटाया,
रुंधे कंठ से बोली
पी नहीं रहा है दूध
कैसे मिटे उसकी भूख|
तभी आवाज आयी,
अरे यह तो वही है
प्लेटफार्म वाली पागल,
सप्ताह भर पहले,
जना है एक बच्चा|
ये ही इसकी
जवानी की कहानी
जाने किसकी है निशानी|
कैसे हो तुम?
पागल को भी नहीं बख्शा,
कैसे उसके गर्भ में,
आया एक बच्चा?
वह तो बच्चे की बचाने जान
दौड़ पड़ी उस सड़क
जो था वीरान और सुनसान|
बच्चे ने आंखें खोली
उसे सीने से लगाए
वह तो चल पड़ी
निस्वार्थ भाव से मुस्काए|
तुमने तो उसकी जान लूट ली,
और वो अपनी जान की
परवाह ना करते हुए
अपनी जान को बचाने
के लिए दौड़ पड़ी|
नियति तो देखो वही पागल है
जिसने बनाया पागल
वो स्वतंत्र, फब्तियां कस रहा|
वह तो पागल है
तय करो तुम क्या हो
तुम्हारी गिनती किस श्रेणी में हो?
— सविता सिंह मीरा