नारि
नारि शब्द का यदि संधि विच्छेद करने लगें तो न+अरि=नारि होता है। नारि किसी परिवार का ही नहीं बल्कि देश की समृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। परन्तु यही जीव जब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने पर उतर आए तो बचाव का भी उपाय नहीं होता। परिवार, देश और धर्म की रक्षक नारि तब शस्त्र भी उठाती है और काल स्वरूपा महाकाली भी बनती है। हम केवल अपने देश की बात करने चले हैं तो हम हर कदम पर यह अनुभव कर रहे हैं कि यह शक्ति स्वरूपा, देश की आज़ादी के साथ-साथ उसकी समृद्धि में भी हमेशा योगदान देती आई है। कितने ही आंदोलनों का हिस्सा रहने वाली यह नारी युद्ध के मैदान में भी दुश्मनों को पछाड़ती आई है तो वहीं वह अपने मातृत्व की ज़िम्मेदारी अर्थात् सृजन के दायित्व को भी भली प्रकार निभाती आई है।
बात अपने गृह राज्य उत्तराखण्ड से शुरू करें तो स्वतन्त्रता संग्राम के समय महिलाओं के आन्दोलन में योगदान को लेकर उत्तराखण्ड में ऐसी महिला शख्सियतों की भरमार है। यहाँ तक कि उत्तराखण्ड राज्य गठन में भी हमारी नारी शक्ति का अहम योगदान रहा है। इसी क्रम में आज हम आपको उत्तराखण्ड की ऐसी ही सशक्त वीरांगना से परिच. कराते हैं जिन्हें गढ़वाल की झांसी की रानी नाम से जाना जाता है। इन्हें तीलू रौतेली कहा जाता है, वास्तव में इनका मूल नाम तिलोत्तमा देवी था। गढ़वाल! जिसे वीरों की भूमि कहा जाता है, उसी गढ़वाल के चौंदकोट परगना के गुराड़ तल्ला में तत्कालीन गढ़वाल नरेश फतेहशाह के सभासद भूपसिंह गोर्ला (भुप्पू रौत) व मैनावती के घर आठ अगस्त, 1661 को महान वीरांगना वीरबाला तीलू रौतेली का जन्म हुआ था। उनके पिता भूप सिंह गढ़वाल नरेश फतहशाह के दरबार में सम्मानित थोकदार थे। उन्होंने 15 वर्ष की उम्र में चौंदकोट के थोकदार भूम्या सिंह (सम्भवतया भूमि सिंह) नेगी के पुत्र भवानी सिंह के साथ अपनी एकमात्र पुत्री तीलू की सगाई धूमधाम से कर दी थी।
कहा जाता है कि यह षोड़शी केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी किन्तु यह सच नहीं लगता। हाँ घटनाक्रम उनकी 15 वर्ष की वय से प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु यह बात भी विचारणीय है कि क्या कोई किशोर कन्या एकाएक अस्त्र उठा सकती है और निरन्तर सात साल तक लड़े युद्धों में अपने दुश्मन राजाओं को कड़ी चुनौती दे सकती है? जी हाँ यह हुआ तो अवश्य है फिर भी मेरा मानना यह है कि इसकी तैयारी में समय अवश्य लगा होगा। परिवार पुरुषों के बलिदान के बाद मात्र 15 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने गुरु शिबू पोखरियाल से घुड़सवारी और तलवार बाजी सीखी।
ऐसा आभास होता है कि उनका बाल्यकाल भी रानी लक्ष्मी बाई की तरह ही भाइयों के साथ सैनिक प्रशिक्षण में बीता होगा। एक बात यह भी विचारणीय है कि क्या तीलू के जीवन को बदल देने वाली घटना में तीलू की माता मैनादेवी के मुख से निकली चुनौती क्या केवल मात्र कहने के लिए ही व्यंग्य था? क्या वे केवल दुःखातिरेक में ही तीलू को यह चुनौती दे गईं कि ‘यदि तूने मेरा दूध पिया है तो अपने पिता, भाइयों और भावी ससुर एवं पति के हत्यारों से बदला ले।’ क्या वे नहीं जानती थीं कि एक किशोर कन्या ऐसा नहीं कर सकती? अवश्य जानती रही होंगी कि उनकी पुत्री ऐसा कर सकती है, अन्यथा वे अपनी एकमात्र बची संतान को जानबूझकर मौत के मुँह में नहीं धकेलतीं। प्रत्यक्ष है कि उनके दोनों युवा पुत्र भी राज दरबार में उच्च पदों पर थे, अतः तीलू के लिए सैनिक प्रशिक्षण की भावभूमि अवश्य ही बाल्यकाल से उपलब्ध रही थी।
उस समय गढ़नरेशों और कत्यूरियों में पारस्परिक प्रतिद्वंदिता चल रही थी। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह वहाँ की रक्षा की जिम्मेदारी भूप सिंह को सौंपकर खुद चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूप सिंह ने डटकर उन सभी आक्रमणकारियों का मुकाबला किया। परंतु इस युद्ध में वे अपने दोनों बेटों और भावी जामाता सहित वीरतापूर्वक शत्रु से लड़ते हुए शहीद हो गए। इन सबके युद्धभूमि में वीरगति पाने के बाद तीलू रौतेली ने कमान संभाली और महज 15 वर्ष की उम्र में ही तीलू रौतेली ने कत्यूरी आक्रांताओं की सेना के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंककर अपनी वीरता का लोहा मनवाया। इस युद्ध में तीलू की दो सहेलियाँ देवकी और बेला, जो तल्ला गुराड़ में ब्याही थीं और उम्र में तीलू से छोटी थीं। उन्होंने भी तीलू का साथ दिया। वह दोनों तीलू को रौतेली कहकर पुकारती थी। जिस वजह से यहीं से वीरांगना का नाम तीलू रौतेली नाम से प्रचलित हुआ।
— आशा शैली