लघुकथा : ऐसा नसीब
माह भर ही हुआ था महनूर का हसिफ से तलाक हुए। अब उसके जेहन में हमेशा एक ही बात चलती थी कि नालायक व गैरजिम्मेदार शौहर के साथ रहने से बेहतर है एक लड़की का बिना निकाह किये ही रह जाना। बेचारी क्या करती लौट आई माँ-बाप की देहरी।
अकरम व नाजिया को एक ही औलाद नसीब हुआ था। उन्होंने चूड़ियाँ बेच कर बेटी को पढ़ाया-लिखाया था। लेकिन क्या करते खुदा की मर्जी के आगे भला किसकी, क्या चलती है ?
आज सुबह अचानक महनूर को उल्टी करते देख नाजिया ने पूछा- “हाय अल्ला… ! क्या हुआ बेटा…. कैसा लग रहा है ?” फिर तुरंत अकरम महनूर को गाँव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले गया। चेक-अप से पता चला कि महनूर माँ बनने वाली थी।
महनूर को हसिफ की बहुत याद आ रही थी। आँखें भरी जा रही थी। ख़ामोश खड़े अकरम और नाजिया को देख कह रही थी- “अब्बू… मैं क्या करूँ ? अम्मीजान ! अल्लाह किसी को भी ऐसा नसीब ना बख्श़े।”
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”