कविता

अंतःकरण

सुनो!मुझे कुछ सुनाई दिया,
देखो!मुझे कुछ दिखाई दिया।
पर तुम्हें नहीं?
इसलिए कहती हूँ सामान्य
नहीं हूँ मैं,विशेष भी नहीं
इन दोनों परिचयो से मुक्त हूँ।
जानने के इच्छुक हो मुझे
मेरे अंतःकरण को तो?
आओ चिर परिचित कराती हूँ
स्वयं से।किंतु
तुम्हें भी सामान्य और विशेष से
मुक्त होना पड़ेगा।
मूंद लो ये दिखावे वाले नेत्रों को,
जागृत करो अपनी इन्द्रियों को
अब आदेश करती हूँ
स्वयं से भेंट करने का
ध्यान केंद्रित करो
मेरे अंतःकरण पर!
देखो मेरे लघु हृदय में!
कितना भव्य और विशाल
मंदिर स्थापित हो रखा है।
अब स्वयं के हृदय को
गंगाजल से पवित्र करो।
क्योंकि इस मंदिर का कपाट
इतनी सरलता से नहीं खुलेगा।
देखो कितने असंख्य दीप
मैंने प्रज्वलित कर रखे हैं….
इन दीपों से दिव्य रोशनी
प्रस्फुटित हो रही है
जिसे तुम्हारे सामान्य नेत्र
बर्दाश्त नहीं कर पाते।
देखो उसमें एक देवता की
मूर्ति भी स्थापित है जो
मन देवी के देवता हैं!
सुनो! इस मंदिर के विशाल
घंटियों,शंखों के नाद को
मन देवी के मंदिर में
तुम्हें ऐसे-ऐसे पुष्प मिलेंगे
जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।
जिनकी सुगंध से संपूर्ण मंदिर
सुगंधित हो रखा है
इस मंदिर में चढ़े हुए फल
और प्राप्त फल भी।
अन्यत्र दुर्लभ हैं
क्योंकि यह मन देवी के
अंतः करण का मंदिर है
मन देवी मंदिर है।

— मांडवी सिंह

मांडवी सिंह

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार,कुशीनगर-उ.प्र.