पृथ्वी
आंखें खोला और बंद किया
मां धरती की ही गोद में,
सारा जीवन बीत गया
संग आमोद और प्रमोद में,
चोट सदा पहुंचाते रहे
हृदयतल की गहराई तक,
न चेते न माने कभी
उतर आए ढिठाई तक,
न सोचे कभी उस मां की पीड़ा
करते रहे हम मनमानी,
तहस नहस कर उसकी व्यवस्था
कह कह खुद को महा ज्ञानी,
मीठा पानी और शुद्ध हवा
निःस्वार्थ हमें वो देती है,
इंसानी चोटों को नित सहकर
नहीं बदला कभी वो लेती है,
कंक्रीटों का जाल बिछाकर
किस दुनिया को हम बना रहे,
प्रकृति के सानिध्य में रहकर
धरा को हरा क्यों नहीं बना रहे,
आओ एक पौधा आप लगाओ
और एक पौधा लगाऊं मैं,
मित्रता का संकल्प लें इस मिट्टी से
धरती मां भी रहे सहज और निर्भय।
— राजेन्द्र लाहिरी