ग़ज़ल
इंसानियत की राह में कुछ कर गुज़र जाने के बाद
अब भी ज़िंदा हैं बहुत से लोग मर जाने के बाद
यूं तो गिरना लाज़मी है ऊपर उठने के लिए
उठना मुश्किल है मगर आंखों से गिर जाने के बाद
शक्ल अब पहले के जैसी हो नहीं सकती मेरी
अब भी बाकी हैं निशां ज़ख्मों के भर जाने के बाद
और कुछ आसानी तो होती नहीं इससे मगर
हारना आसान हो जाता है डर जाने के बाद
करके मेहनत पूरा दिन भी हाथ खाली हैं मेरे
कैसे मुंह दिखलाऊंगा बच्चों को घर जाने के बाद
— भरत मल्होत्रा