ग़ज़ल
ग़म नहीं गर भला सा मुकद्दर न हो।
दिल के अन्दर मगर कोई भी डर न हो।
सच कहे कौन ज़ालिम के तब सामने,
मुल्क में गर कोई भी सुख़नवर न हो।
हुक्मरां उन को ज़ा लिम मिले बारहा,
रब किसी का भी हम सा मुकद्दर न हो।
क्या करे जा ब जा गर न घूमे कहीं,
पास जिस के ज़मीं पर कोई घर न हो।
कितने ख़त रात हैं फायदा कुछ नहीं,
सर खुला हो अगर सर पे चादर न हो।
— हमीद कानपुरी