सारगर्भित बात
साथियों में वाद-विवाद चल रहा था.
“आजकल बोलना, सुनना, देखना गुनाह हो गया है. न बोलो, न देखो, न सुनो.” एक ने कहा.
“बिना बोले कैसे काम चलेगा! जरूरी, मीठा-सच्चा, कम-से-कम,
तोल-मोलकर बोलना जरूरी है, इससे मन भी संतुष्ट रहेगा, रिश्ते भी बने रहेंगे.” दूसरे ने कहा.
“सही कह रहे हो दोस्त, सुनना भी बहुत जरूरी है. बुरा सुनना ठीक नहीं है, फिर भी सुनाई पड़ जाए तो मन में धारण मत करो. उससे सीख ले सकते हो तो अवश्य लो.” तीसरे ने कहा.
“देखना भी गुनाह नहीं है. जाने-अनजाने बहुत कुछ दिखाई दे जाता है. सार-सार गहि लो, थोथो देहि उड़ाय.” चौथे ने कहा.
“अच्छा बोलो, अच्छा सुनो, अच्छा देखो, सुधार कर सकते हो तो करो, अन्याय का प्रतिकार करो, दुर्घटना होने पर सेल्फी लेने के बजाय सेल्फ-सहायक बनो.”
पांचवें की सारगर्भित बात से सब सहमत थे.
— लीला तिवानी