शहर भर गए खाली गांव
शहर तो सारे भर गए मित्रो खाली हो गए अब तो गांव
पैसे देकर मिलता सब कुछ नहीं मिलती पीपल की छांव
पेट की खातिर दर दर भटका छाले पड़ गए मेरे पांव….
कहने को तो भीड़ बहुत है अपना कोई नज़र न आये
जिससे भी कुछ कहना चाहे नज़र चुरा कर चलता जाए
पीछे मुड़ कर क्यों देखे कोई नया शहर है नई है ठाँव……
रात भी लगती दिन के जैसी लगातार चलते सब लोग
कोई बेचारा भूख से मरता किसी को मिलते छपन्न भोग
प्यार मोहब्बत कहां खो गए नहीं रहा अब इनका नाम…….
बूढ़े नज़र हैं आते घर में दिखता नहीं अब कोई जवान
शहर सभी को अच्छा लगता गांव के बन्द पड़े हैं मकान
चले गए सब संगी साथी रह गया बस उनका नाम…….
रिश्ते नाते यहां नहीं हैं यहां तो पैसा सबसे बड़ा
हर चौराहे पर मिल जाता बेईमान मक्कार खड़ा
बड़ों बड़ों को सिर पे बिठायें छोटों का नहीं इज़्ज़त मान….
घर हैं सबके साथ साथ अनजान हैं सब इक दूजे से
मन में सबके मैल भरा हैं चेहरे सबके बुझे बुझे
बातें उनकी बड़ी बड़ी और छोटे हैं सब उनके काम…..
मिलता सब कुछ शहर में लेकिन अपनापन कहीं नज़र न आए
भागदौड़ की ज़िंदगी है कोई भी सुखचैन न पाए
दो पल कोई ठहरता नहीं चलता जाए सुबह से शाम…..
शाम को लगते थे जहां मेले अब तो है सुनसान पड़े
बारी बारी चले गए सब बड़ और पीपल वहीं खड़े
मिलता नहीं है कोई राह में किसको पुकारें लेकर नाम….
— रवींद्र कुमार शर्मा