ग़ज़ल
हम कभी मिलते नहीं हैं दिन रहे या रात में
हम बहारों में जुदा थे हम जुदा बरसात में
मैं अकेला भीड़ में हूँ हर जगह इक अज़नबी
तुम जुलूसों में नहीं हो तुम नहीं बारात में
देख लेना एक दिन तुम बिन हमारे ये जहां
देखता हूँ किस क़दर था दम तुम्हारी बात में
जो न बदलेंगे कभी इस ज़िंदगी के अंत तक
जी रहा हूँ बिन तुम्हारे मैं उन्हीं हालात में
ज़िंदगी ख़ुशहाल क्यों है और जोड़ा मस्त क्यों
ये क़ज़ा की डाह थी तुम पर विकट आघात में
जीतकर भी ख़ुश न होगा प्यार का बैरी कभी
मात देकर छोड़ देता मार डाला मात में
गर सुहाना, शान्त होता ये मुहब्बत से भरा
मैं ज़माना डाल लेता जान के निर्वात में
— केशव शरण