कहानी – दहलीज़ के पार
हर महीने की सात तारीख को हमारी मासिक गोष्ठी होती थी । उस दिन हमारे उच्चाधिकारी हमें विभागीय सूचनाएं देते आदेश नोट करवाते तथा मासिक वेतन वितरण करते ।
आज सात तारीख थी और कार्यालय में मासिक गोष्ठी थी। दिसंबर का महीना था । डलहौजी की पहाड़ियों पर थोड़ा-थोड़ा हिमपात हो चुका था देवदार के घने पेड़ों की शाखाओं पर रूई के फाहों की तरह बर्फ के फाहे लटके हुए थे। दूर-दूर तक बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी ।
पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला सफेद चांदी सी चमकती धवल नवल दिख रही थी ।
मैं ठीक साढ़े नौ बजे कार्यालय के गेट पर पहुंच गया ।
अभी कार्यालय के दरवाजे खोल चपरासी झाड़ू लगाकर कुर्सियां तथा मेज कपड़े से साफ कर रहा था ।
बाकी अभी तक कार्यालय में कोई नहीं पहुंचा था।
ठंड से बुरा हाल था। मैंने गर्म जुराबे दस्ताने वा चमड़े की जैकेट पहन रखी थी फिर भी डलहौजी की बर्फीली हवा की ठंड मेरे पूरे शरीर को हिलाए जा रही थी …।
मैंने चपरासी को सगड़ी जलाने को कहा-भाई बहुत ठंड लग रही है सगड़ी तो जला दो ।”
उसने सगड़ी जलाने के लिए दो तीन सगड़ियों में कोयले डाले और थोड़ा-थोड़ा तेल डालकर बरामदे में रखकर
सुलगा दिया ….।
कच्चे कोयले और तेल की गंध से पूरे वातावरण में एक अजीब सी गंध फैल गई ।
मैंने अंदर से कुर्सी उठाई और सगड़ी के साथ रख ली ।गत्ते के टुकड़े से हवा देकर सगड़ी को सुलगने लगा और दास्तानें खोलकर हाथ सेंकने लगा ।
कार्यालय सड़क के साथ था । इक्का-दुक्का गाड़ियां सड़क से गुजर रही थीं । बर्फीली सड़क पर गाड़ियों के गुजरने से पैदा हुई फच – फच की आवाज हमारे कार्यालय के बरामदे तक आ रही थी ।
मैं गत्ता हाथ में लेकर धीरे-धीरे सगड़ी को सुलगा रहा था ।इतने में सुलगती सगड़ी देखकर एक औरत जिसकी उम्र लगभग पैंतालीस के आसपास होगी सगड़ी के पास आकर बैठ गई और हाथ सेंकने लगी ।
यह औरत मेरे लिए कोई नई नहीं थी।इस कस्बे में इसको मैं पिछले बीस सालों से देख रहा था । तब यह जवान और खूबसूरत हुआ करती थी ।
आज उसके कंधे पर एक पुराना सा पर्स लटका था ।साधारण से कपड़े पहने हुए वह होठों पर लिपस्टिक लगाए हुए थी । साधारण से बाल काली मेंहदी से रंगे हुए। साधारण नाक नक्श सुंदर गठीला बदन, लगभग पांच फुट लंबाई।
शायद वह कहीं आस-पास ही रात गुजार कर आई थी।
ऐसा लग रहा था….. ।
मैंने उसे पहले भी कई बार देखा था, वह जब भी बारिश वगैरा होती तो इसी ऑफिस के बरामदे में आकर खड़ी हो जाती। आते जाते कर्मचारी चाय मंगवाते तो उसे भी कभी कभार पिला देते।
वह थोड़ी देर रूकती फिर चली जाती । बरसों से इस जगह से मेरा परिचय था….।
इसी वजह से मैं उसे भी जानता था कि यह धंधा करती है ।
मेरी नजर में वह एक आवारा औरत थी। पिछले कई वर्षों से मैं उसे यही देखता आया था । इसकी बेबसी की कहानी इतनी क्रूर हो सकती है मुझे अंदाजा नहीं था……।
मैंने इसके जीवन का सिर्फ एक ही पहलू देखा था जो मेरी नजर में एक आवारा औरत का चित्र अंकित कर पाया था…..।
सिक्के के दो पहलू होते हैं सिक्के का दूसरा पहलू कितना क्रूर हो सकता है यह मैंने कभी सोचा भी नहीं था और न ही कभी सोचता अगर यह औरत आज मेरे साथ बैठकर थोड़ी देर बात न करती तो….।
और मैं अपनी बनाई धारणा में ही इसे सदैव तोलता रहता…।
जब यह जवानी में थी तब तो यह बहुत सुन्दर थी । अब इसकी जवानी के ढलने के साथ इसकी सुंदरता भी कम हो गई थी । फिर भी सुंदर थी….।
सगड़ी में डाले कोयले सुलग उठे थे …..।
अब धुआं कम हो गया था । मैंने उससे बात करने के लिए भूमिका बांधनी शुरू कर दी । “आज बहुत सर्दी है।” मैंने बात शुरू की । उसने हां में सिर हिला दिया।
मैंने फिर पूछा- आपका नाम? हालांकि इसका प्रचलित नाम मैं जानता था।
वह बोली -“नैनो “।
कहां रहती हो ? वह मुस्कुरा दी ।
उसने मुझे पहले कई बार देखा था। शायद वह मुझे पहचानती थी कि यह इसी कार्यालय के अधीन बाहर कहीं कर्मचारी है। इसलिए वह मुस्कुराकर अनमनी सी बोली -“मेरा कोई घर नहीं है, जहां रात पड़ी काट ली ।”
मैंने उसे खंगालते हुए पूछा कि तुम इस रास्ते तक कैसे पहुंची । कौन से ऐसे हालात रहे जो तुम्हें इस तरह घर की दहलीज से पार ले आए….।
तब वह मेरी अपनत्व भरी बातें सुनकर भावुक हो उठी ।बोली ….”बाबू यह कहानी बहुत लंबी है….”।
और उसने एक लंबी सांस ली…।
फिर बोली -“अगर नहीं मानते तो सुनो मेरे अतीत की कहानी।”
फिर वह बताने लगी-” मैं अपने मां-बाप की इकलौती संतान थी ।
मेरे बापू मुझे भी पढ़ा- लिखा कर आप आफिसर बनाना चाहते थे ।
मैं पढ़ने में भी बहुत अच्छी थी।
हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आती थी ।अचानक एक हादसा हुआ ।
मेरे पिताजी बस दुर्घटना में हमें छोड़ कर चल बसे ।उस समय में आठवीं में पढ़ती थी …।
इस झंझावात ने हमारे घर की छत को हिला दिया ।
मेरी मां अब मुझे आगे पढ़ाना नहीं चाहती थी ..….।
अब वह मेरी शादी करना चाहती थी । मेरी उम्र भी अठारह साल हो गई थी और हमारे जमाने में आज की तरह पांच साल के होते ही स्कूल में दाखिल नहीं करवाते थे ।
दस दस वर्ष के बच्चे स्कूल में पहली बार कक्षा में दाखिल करवाए जाते थे ।
मुझे भी इसी उम्र में दाखिला करवाया गया था ।तभी तो मैं आठवीं तक पहुंचते-पहुंचते 18 वर्ष की हो गई थी ।
मेरी मां ने अपनी बिरादरी में एक लड़का देखा और उसे घर जंवाई बना कर मेरी शादी कर दी ।
मेरी मां ने उनके कहने पर सारी जमीन जायदाद उसके नाम कर दी ।
मां ने अपने हाथ काट कर उसे दे दिए । बिना कमाए उसे सब कुछ मिल गया तो धीरे-धीरे उसका दिमाग फिरने लगा ।
उसने जुआ शराब शुरू कर दिया ।पहले तो चोरी चोरी फिर सरेआम ।
एक साल बाद मां भी इस दुनिया से विदा हो गई ।
दो-तीन वर्ष इसी तरह बीत गए ।वह नशे का आदी हो गया। मैं उसे समझाती तो वह मारपीट करता ।कई रातें मैंने घर के बरामदे में काट दीं।
मेरे पास अपना कुछ नहीं था ।क्योंकि सब कुछ मां ने उसके नाम कर दिया था ।
फिर एक दिन मेरे उसी घर में एक दूसरी औरत आ गई ।
वह मेरी सौतन थी ।
मुझे धक्के मार मार कर अपने ही घर की दहलीज से बाहर कर दिया ।
जब मैंने जमाने की छांव चाही तो बदले में उसने मेरा गोश्त मांगा …..।अब उसकी आंखें छलछला आईं थीं।
मैं जवान थी मेरा गोश्त चील कौवे नोचने लगे…… ।
मैं काट काट कर स्वयं उनको खिलाती रही ।वक्त बीतता रहा। मैं भी गोश्त खिलाने की आदी हो गई ।
अब धीरे-धीरे मेरे बदन से गोश्त गायब होने लगा है और मेरे गोश्त के व्यापारी मुझसे आंख चुराने लगे हैं।
अब तो कई बार मुझे भूखे भी सोना पड़ता है ।
मैंने मुड़ कर पीछे नहीं देखा न ही देखना चाहती हूं। अब यह सड़क ही मेरी जिंदगी है ।यही जीउंगी यहीं मरूंगी …… ।सगड़ी में सुलगते कोयलों ने आसपास गर्माहट फैला दी थी । फिर घने काले बादल आसमान पर छा आए थे ।
बीच-बीच में गड़गड़ाहट से डराने लगे थे…… ।
दफ्तर में अभी भी कोई नहीं आया था ।वह अपनी दास्तां सुना कर चुप हो गई थी….. ।
मैंने चपरासी को तीन कप चाय लाने के लिए कहा ।
चपरासी चाय लेने चला गया….।
सामने सड़क से कोई उसे आवाज लगाकर बुला रहा था ….।नैनो…..।ओए…. नैनो …।
उसने पलट कर देखा एक ट्रक ड्राइवर उसे साथ चलने का इशारा कर रहा था ।वह उठकर चलने लगी तो मैंने कहा चाय मंगवाई है चाय तो पी लो ।
तब वह बोली -“बाबूजी आपकी चाय ड्यू रही फिर कभी पी लूंगी।”
और वह ट्रक की तरफ चल दी और ट्रक की बारी खोल कर उसमें बैठ गई। ट्रक चला गया ….।
मैं बड़ी देर तक उस जाते हुए ट्रक को देखता रहा……. । उसकी दहलीज के पार की यह क्रूर कहानी सुनकर मैं कई अनुत्तरित प्रश्नों से जूझता हुआ भीतर ही भीतर पिघलने लगा था।
— अशोक दर्द