चुनावी सेवा (व्यंग्य )
जनता की सेवा, करने को
देखो सब , कितने बेचैन हैं
कड़ी धूप में सब, निकल पड़ते है
न दिन में सुकून,न रात को चैन है।
अपने घर का काम, ये भले न करें
आपकी तीमारदारी, को उत्सुक हैं
वादों-फरियादों की, है लगी झड़ी
घर-घर जाते, मानो भिक्षुक हैं।
कोई मुफ्त बिजली, पानी बांट रहा
कोई फ्री राशन, की हुंकार भरे
बस कैसे भी, सत्ता मिल जाए
खुद अपनी ही,जय-जयकार करें।
कुछ हैं जो, जेल में बैठे हैं
पर चुनाव लडने, को हैं तैयार
जेल से ही सब काम, करवा देंगे
फड़काते बाहें, और भरते हुंकार
नये -नये नारों का, हुआ अवतरण
कुछ फुस्स हुए, कुछ करें घर्षण
गारंटियों को तो,गिनना है मुश्किल
धीरे-धीरे खो रही, हैं आकर्षण।
टिकट पाने को, जो हैं लालायित
उनका तो और भी, है हाल बुरा
असमंजस में , बीत रहे हैं दिन
न जाने किस्मत,में है क्या लिखा ।
टिकट न मिलने, की स्थिति में
बगावती तेवर, मुखर कर रहे
पल भर का भी, इंतजार न करके
समर्थकों संग, दल बदल रहे।
जिनको कोई भी, नही पूछ रहा
वे निर्दलीय बन, ताल ठोंक रहे हैं
भले कोई भी, समर्थन न दे उन्हें
अपने दिन-रात, वो झोंक रहे हैं।
कुछ तो बस मौज, के लिए खड़े हैं
मुखपृष्ठों पर, जगह, मिल जाएगी
चुनाव जीतना तो, दूर की बात है
ज़मानत तक, जब्त हो जाएगी।
हैं इन सबकी, जीवटता को नमन
जो लोकतंत्र को, जिंदा रखा है
हो प्रचार में,कितनी भी छींटाकसी
सेवा की ही, सबकी मंशा है।
सेवा की ही, सबकी मंशा है।।
— नवल अग्रवाल