गरीबी का टॉनिक (व्यंग्य)
सत्ताधारी कहते हैं- गरीबों का विकास हुआ। विपक्ष कहता है-गरीबी का विकास हुआ। अपनी तो खोपड़ी घूम जाती है भाई किसकी माने। द्रौपदी का चीरहरण करनेवाले दुश्शासन की सी फिलिंग आती है साली! नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है।
फिर मन कुरुक्षेत्र का कृष्ण बनकर तटस्थ स्थिति में स्थितप्रज्ञ हो जाता है – दोनों का ही विकास हुआ। गरीब का भी और गरीबी का भी। अपना-अपना दृष्टिकोण है। दरवाजे को आधार खुला कहो तो भी ठीक। आधा बंद कहो तो भी ठीक।
वास्तव में दोनों ही -गरीब और गरीबी- इस देश में हर वर्ग के लिए टॉनिक हैं। आज़ादी से पहले किसानों की गरीबी पर लिखकर साहित्य में प्रेमचंद जी कथा ‘सम्राट’ बन गये। अर्थशास्त्रियों ने गरीबों पर चप्पल रबड़ी तो ‘नोबल पुरस्कार’ में अरबों कमा लिया। समाजशास्त्री भी गरीबों की आड़ लेकर संस्थाओं के चंदा उगाहने का धंधा करते रहते हैं। तिजोरियाँ भरती रहीं और गरीब फिर भी बढ़ते रहे। डॉक्टरों की जीविका का आधार भी इस देश में पसरी बीमारियों के साथ गरीबी है। कभी-कभी तो लगता है कि गरीबी और बीमारी का चोली-दामन का साथ है। गरीब या तो गरीबी से मरता है या बीमारी से। पर्यावरण की विषमता का पहला उपभोक्ता भी गरीब ही होता है। बाढ़, अकाल, तूफान, धूल, गंदगी सब गरीबों के हिस्से में सबसे अधिक आती है। शिक्षा व्यवस्था में गरीबों की ओर ध्यान देने बात की जाती है लेकिन लाभ मिलता है उन्हें जो गरीब नहीं हैं। प्रदर्शनी में उस चित्रकार को लाखों रुपये का ईनाम मिला जिसने गरीबी के कारण अधनंगी भिखारिन की दयनीयता को सँवारा था धनवानों को जेठ और वैसाख की गरमी झुलसाने लगती है। इसलिए गाँव में गरीब नंगे पैर तपती धूप में वोट डालने जाता है। एक मामले में कृष्ण की भगवद्ता इसलिए बढ़ी कि उन्होंने सुदामा जैसे गरीब के पैर अपने ‘आँसुओं से धोए’ थे- पानी परात को हाथ छुयौ नहिं, नैनन के जल से पग धोए। कहा जाता है कि-गरीबी अभिशाप है। इसलिए भगवानों ने भी गरीबों के घर पैदा होने में रुचि नहीं दिखाई। राम-कृष्ण-गौतम-महावीर सबने किसी राजघराने को ही धन्य किया। यदि किसी गरीब की कुटिया में पैदा होते तो तेल और तेल की धार का पता चलता।
देश को सरकार नहीं चलाती, गरीब चलाते हैं। योजनाएँ गरीबों की गरीबी हटाने के लिए बनती रहीं लेकिन अमीर नेतागण होते गये। ये है राजनीति और गरीबी का गठबंधन!! गरीबी राजनेताओं के लिए संजीवनी का काम करती है। जिस दिन भारत धनवान देश बन जायेगा उस दिन नेता भूखे मर जाएँगे और राजनीति खत्म हो जाएगी।
देश में हर वर्ष गरीबी की रेखा ऊपर-नीचे होती रहती है।समझ नहीं आता कौन धनवान हैं और कौन निर्धन? सब कर्ज़दार बने फिर रहे हैं। कर्ज़ लेना अब सम्मान का विषय है। पहले गरीब आदमी साहूकार से कर्ज़ लेता था। अब गरीब आदमी बैंक से कर्ज़ लेता है। अमीर दिखने के लिए। कार खरीदने! बंगला बनाने!! विलासितापूर्ण जीवन सामग्री खरीदने!!! ऐसा लगता है गरीबी की रेखा के नीचे हर भारतीय दबा हुआ है। बड़ी भारी है यह रेखा जो दिखाई नहीं देती।
देश ने स्वतंत्रता के पश्चात प्रगति के अनेक प्रतिमान गढ़े। ये सच है कि हम मंगल तक पहुँच गये लेकिन यह भी सच है कि जीवन के मंगल से दूर होते चले गये। जीवन से संतोष रूपी मंगल कहीं अंतरिक्ष के उस पार चला गया। धर्म की राह पर चलते-चलते अधर्म को अपना बैठे। शिक्षा से अशिक्षा की ओर बढ़ते गये। आरक्षण के चोले में रक्षण से भक्षण को अपना लिया। नैतिकता के स्थान पर अनीतियाँ जीवन का मूल्य बन गईं। देशभक्ति के शाश्वत मूल्यों का स्थान राजनैतिक अभद्रता ने ले लिया। हम ऋषियों, वेदों-पुराणों तथा गौतम और महावीर के इस आदर्श को विस्मृत कर बैठे कि-
“गोधन गजधन बाजिधन औ रतनधन खान। जब आवै संतोष धन, सब धन धूरी समान।।
— शरद सुनेरी