अन्र्तचेतना जगाने का उत्सव: पर्युषण महापर्व
जैन धर्म का महापर्व पर्वाधिराज पर्युषण इस वर्ष 31 अगस्त को हमारे समकक्ष उपस्थित हो रहा है। पूरे विश्व में इससे अधिक पवित्र अन्य कोई पर्व नहीं जो मानव को उसके स्वरूप का दर्शन करा सके। इस हेतु इसे महापर्व कहा जाता है। जैन धर्म में इसका बहुत महत्त्व है। क्योंकि जैन धर्म में अहिंसा एवं आत्मा की शुद्धि को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। प्रत्येक समय हमारे द्वारा किए गए अच्छे या बुरे कार्यों से कर्म बंध होता है, जिनका फल हमें कभी-न-कभी भोगना अवश्य पड़ता है। जहाँ हमारे शुभ कर्म जीवन व आत्मा को उच्च स्थान तक ले जाते हैं, वही अशुभ कर्मों से हमारी आत्मा मलिन हो जाती है।
पर्युषण पर्व त्याग और वैराग्य का संदेश लेकर आता है। इसे बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण में मनाया जाता है। इन दिनों में सर्वत्र ही धर्म की निर्झर धारा बहने लगती है। इसकी शिक्षाएँ आत्मा में परिशुद्धता और जीवन में पारदर्शिता लाती है। इस महान् पर्व के दौरान विभिन्न धार्मिक क्रियाओं से आत्मशुद्धि की जाती है तथा मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने का प्रयास किया जाता है ताकि जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए मुक्ति पाई जा सके। जब तक हमारे अशुभ कर्मों का बंधन नहीं छूटेगा, तब तक आत्मा के सच्चे स्वरूप को हम नहीं पा सकते हैं।
यह पर्व जीवन में नया परिवर्तन लाता है। साथ-ही-साथ हमें हमारे द्वारा कृत पापों और कषायों को रग-रग से विसर्जन करने का अवसर देता है। सम्पूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मसात होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है एवं आलौकिक, आध्यात्मिक आनन्द को प्राप्त करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है। पर्युषण आत्म-जागरण का संदेश देता है और हमारी सोई हुई आत्मा को जगाता है। यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की हमें शक्ति देता है।
यह हमें क्रोध, मान, माया, लोभ, ईष्र्या, द्वेष आदि विकारी भावों से मुक्त होने की प्रेरणा देता है। क्योंकि हमारे विकार अथवा अशुभ भाव ही हमारे दुःख का कारण बनते हैं और ये भाव बाह्य पदार्थों या व्यक्तियों के संगति के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। आसक्ति रहित आत्मावलोकन करने वाला व्यक्ति ही इनसे बच सकता है। इस पर्व में आत्मदर्शन की साधना की जाती है। इस पर्व में प्राणी अपने अन्तसः में छुपे हुए सद्गुणों को विकसित करने का पुरुषार्थ कर सकता है। यह पर्व अपने व्यक्तित्व को सुदृढ़ बनाने के लिए एक सर्वोत्तम माध्यम है। इसमें तपकर साधक अपने कर्मों की निर्जरा करके अपनी काया को निर्मल बना सकता है। इस विशेष पर्व के दिनों में साधक अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं। शरीर के पोषण में तो हम पूरा वर्ष व्यतीत कर देते हैं पर इन विशेष आठ दिनों में आत्मा के पोषण के लिए व्रत, नियम, त्याग, संयम को अपनाया जाता है। मोहमाया से दूर गुरु भगवन्तों के सान्निध्य में अधिक-से-अधिक जप-तप-साधना में समय को व्यतीत किया जाता है एवं अपनी इन्द्रियों को वश में कर साधक उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। यह सभी पर्वों का राजा कहलाता है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहते है।
अनन्त काल से आत्मा मिथ्यात्व, मोह और अज्ञानता में रमती आ रही है। वह अपने स्व भाव को भूलकर विभाव को ही निज स्वरूप मानती रही है, जिसके कारण वह अपने दुःख, क्लेश और व्याधियों का अंत नहीं कर सकी और न ही कर पाएगी। जब तक उसे अध्यात्म में रमने की कला नहीं आ जाती। अध्यात्म में रमने की कला को बताने के लिए ही प्रतिवर्ष पर्युषण महापर्व का आगमन होता है। जिसकी सम्पूर्ण शिक्षाएँ केवल आत्म-दर्शन पर ही केन्द्रित होती है।
जैन धर्म एक व्यसन-मुक्त अहिंसक परम्परा का प्रतिनिधि रहा है। इस धर्म ने उन्हीं मापदण्डों को अपनाया है, जिनसे नैतिकता, धार्मिकता, सामाजिकता और आध्यात्मिकता गौरवान्वित हुई है। आज भौतिकता और आधुनिकता की चकाचैंध हर किसी को अपने गिरफ्त में ले चुकी है परन्तु धन्य है पर्युषण का यह मंगल क्षण जो आधुनिकता की चकाचैंध से हमें निकालकर आत्म-कल्याण के पथ पर लगा देता है और हम स्वतः ही उस राह के पथिक बन जाते हैं।
आइए, आत्माराधना के इस आध्यात्मिक महापर्व का हम उत्साहपूर्वक स्वागत करें। इसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारें, मन में कोई कलुषिता न रहने दें। किसी तरह की गलती हो जाने पर मन से पश्चाताप करें तथा उसकी पुनरावृत्ति न होने दें।
— राजीव नेपालिया (माथुर)