ग़ज़ल
सांसों के सफर का पता नहीं कब चलते-चलते थम जाए
संतोष मिले जो पाया है उसमें ही यह मन रम जाए
दुनिया के अंधेरे जंगल में झुरमुट में उजाला दिखे कहीं
ना चांद सितारे हाथ आयें हो दूर घना यह तम जाए
आना जाना सबका तय है जो आया है वह जाएगा
पर पिघल रहे इन रिश्तो में थोड़ी सी बर्फ तो जम जाए
हर ज्वालामुखी से लावा की इक नदी सी बहने लगती है
पूरी बस्ती यह मनाती है हो आंच जरा सी कम जाए
वेदना हमारी दबी रहे और धार कलम की पैनी हो
कवि मन ना कभी ये चाहेगा हो आँख किसी की नम जाए
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव