बाल कहानी : बादल और बच्चे
सावन का आठवाँ दिन था। सुबह की स्वर्णिम धूप बड़ी रमणीय थी। दोपहर होते तक वातावरण उमस हो गया। शाम तक नीलगगन में बदली छा गयी। अंधेरी रात और अधिक घनी होने लग गयी। मध्य रात को तेज हवा चलने लगी। आकाश में छाए बादलों के टुकड़े हिलने-डुलने लगे। न चाहते हुए भी उन्हें इधर-उधर होना पड़ा। अब तो बस तीन टुकड़े ही रह गये। दो बड़े और एक बहुत ही छोटा टुकड़ा। फिर तीनों टुकड़े भी उड़ने की तैयारी कर रहे थे, तभी छोटे टुकड़े बादल ने कहा- “पापा जी ! मैं यहाँ अकेला नहीं रहूँगा। मैं भी जाऊँगा आप दोनों के साथ।”
“नहीं बेटा ! तुम अभी बहुत छोटे हो। हवा भी तेज चल रही है। पता नहीं, हमारा कहाँ जाना होगा। तुम यहीं इधर-उधर होकर अपना समय बिताओ।” पापा बादल ने अपने बेटे छोटकू बादल को समझाया।
“नहीं जी, हम अपने बेटे को यहाँ अकेले नहीं छोड़ेंगे। आजकल हवा बहुत मनचली हो गयी है। उसका कोई ठिकाना नहीं है। इसे कब और कहाँ उड़ा कर ले जाय।” इससे अच्छा हम इसे अपने साथ ले चलते हैं।” मम्मी बादल बोली।
आखिर छोटकू बादल का मम्मी-पापा के साथ जाना तय हो ही गया। तीनों बादल रातभर आकाश में उड़ते रहे। जंगल, झाड़ी, नदी, पहाड़-पर्वत से होकर एक गाँव में पहुँचे; तब तक सुबह भी हो गयी। गाँव वाले अपने-अपने काम में व्यस्त थे। तभी अचानक बादलों की नजर मैदान में खेल रहे बच्चों पर पड़ी। बच्चे उन्हें बड़े प्यारे लगे। जरा रुके; और उन्हें खेलते हुए देखने लगे। फिर वहाँ से उनकी चलने की तैयारी हो ही रही थी कि छोटकू बादल बोला- “पापा जी ! मम्मी जी ! मैं यहीं रुक जाऊँ क्या ? इनके साथ मेरा खेलने का मन कर रहा है। इन्हें मैं अपना मित्र बना लूँ ? “तुम भी न…!” पापा बादल ने मुस्कुराते हुए कहा।
“ठीक है बेटा। पर इन बच्चों के पास मत जाना। वे डिस्टर्ब होंगे। यहीं से तुम उन्हें देखते रहना; और यहीं आसपास ही रहना। यहाँ से कहीं और दूसरी जगह बिल्कुल नहीं जाना।” मम्मी बादल छोटकू के पास जाकर बोली। फिर मम्मी-पापा दोनों वहाँ से चले गये। शोरगुल करते हुए बच्चे अपने में बड़े मस्त थे। उन्हें किसी से कोई मतलब नहीं था। मैदान के चारों ओर हरियाली थी। नीला आकाश बड़ा सुंदर लग रहा था। खेलते हुए बच्चों को देख छोटकू बादल का उनसे मिलने का मन कर रहा था। पर उसे अपने मम्मी-पापा की हिदायत याद थी। आखिर बच्चा बच्चा ही होता है। मन सच्चा भी होता है; और कच्चा भी। अब उससे नहीं रहा गया। उसने आवाज लगायी- “मित्रों !”
बच्चों ने एक अपरिचत आवाज सुनी। वे इधर-उधर देखने लगे। तभी अचानक उनकी नजर ऊपर आकाश की ओर गयी। उन्हें एक छोटा सा बादल दिखाई दिया। फिर एक ने पूछा- “कौन…?”
“मैं छोटकू बादल हूँ।” ऊपर से आवाज आयी।
“छोटकू बादल ! कौन छोटकू बादल ?” बच्चों को आश्चर्य हुआ।
“तुम सभी जैसा मैं भी एक बादल बच्चा हूँ।” छोटकू बादल बोला।
“तो तुम क्या चाहते हो हमसे ?” बच्चे बोले।
“मैं तुम सब से दोस्ती करना चाहता हूँ। मुझे भी अपना दोस्त बना लो। मैं तुम सब के साथ खेलना चाहता हूँ। छोटकू बादल ने अपनी मन की बात कही।
“यह कैसे हो सकता है ?” बच्चों का अचम्भित स्वर निकला।
“हो सकता है मेरे मित्रों। देखो… ना गर्मी भी बढ़ रही है। तुम सब तक मेरे पहुँचने से वातावरण में नमी आयेगी। हल्की सी बारिश होगी। और फिर बारिश में भीगते हुए खेलने में बड़ा मजा आएगा।” छोटकू बादल के मन में बड़ा उतावलापन था।
“बारिश होगी तुम्हारे आने से; हम सबको बहुत मजा आएगा। वो कैसे भाई ?” कुछ समय तक बच्चे खामोश रहे। आपसी सलाह-मशविरा हुआ; और फिर सबने हामी भर दी।
छोटकू बादल के धरती पर आते ही बच्चे खुशी से झूम उठे। खूब नाचे-कूदे। खूब किलकारी गूँजी। देखते ही देखते शाम होने लग गयी। वे अपने-अपने घर लौटने की तैयारी कर रहे थे, तभी छोटकू बादल ने उनसे कहा-“मित्रों ! कल और आना।”
“ठीक है। पर अब तुम क्या करोगे ? कहाँ जाओगे ?” दो-तीन बच्चों ने पूछा।
“देखो मित्रों, वातावरण में फिर ऊष्णता आ रही है। मैं अब वाष्प बनकर ऊपर जाऊँगा। मेरा अपने जल रूप से वाष्प बनना ही वाष्पीकरण है।” कहते ही छोटकू बादल का पानी से वाष्प बनना शुरू हुआ।
“अच्छा मित्र ! अब हम लोग भी चलते हैं। सी यू अगैन टुमॉरो। बॉय।” कहते हुए बच्चे घर लौट गये।
इस तरह दूसरे दिन से रोज बच्चों और छोटकू बादल का मिलना-जुलना और खेलना-कूदना चलने लगा। छोटकू बादल और बच्चों की मित्रता प्रगाढ़ होती गयी। बच्चे बढ़ने लगे। छोटकू बादल का आकार भी बढ़ने लगा।छोटकू बादल को वहाँ से जाना उचित नहीं लगा। आसपास का क्षेत्र उसका निवास-स्थल हो गया। पूरे क्षेत्र में अच्छी बारिश होने लगी। खूब पेड़-पौधे उगने लगे। मिट्टी का कटाव बंद होने लगा। बारिश का पानी पर्याप्त मात्रा में जगह-जगह एकत्रित होने लगा; जिससे भूमि का जलस्तर बढ़ने लग गया। नदी-नाले, पोखर, कूप-सरोवर, जलपम्प सब लबालब होने लगे। लोगों को लगने लगा कि पेड़-पौधे अच्छी वर्षा होने में सहायक होते हैं। पानी और बारिश का महत्त्व लोग समझने लगे। जगह-जगह बांध बनवाये जाने लगे। वृक्षारोपण का काम युद्धस्तर पर होने लगा। अनावश्यक जलप्रवाह की रोकथाम की जाने लगी। कृषि उपज में वृद्धि होने लगी। पूरे अंचल में हरियाली व्याप्त होने लगी। सुख-समृद्धि बढ़ने लगी। लोगों का जीवन ही बदल गया।
— टीकेश्वर सिन्हा ‘गब्दीवाला’