लघुकथा

लघुकथा – परम हितैषी

“सुधा! अगर रतन बाबू ने कोई बहाना बनाकर अजीत को खाली हाथ लौटा दिया तो …।” दीपक बाबू ने आशंका जताई।
“नहीं, नहीं;मेरे भैया ऐसा नहीं करेंगे। अपने एकमात्र भाँजे को निराश नहीं करेंगे। भैया के पास पैसे की कमी नहीं है। पच्चीस हजार रूपये ही तो उधार माँगा है आपने ,बेटे अजीत के दाखिला के लिए।
उन्हें खुशी ही होगी कि उनके भाँजा का दाखिला इंजीनियरिंग कॉलेज में होगा। इस रकम को आप लौटा ही देंगे,है न?”
“बिल्कुल लौटा दूँगा। चार महीने से वेतन नहीं मिला है,वेतन मिलते ही पूरी रकम लौटा दूँगा।”
“पापा,मुझे दाखिला नहीं लेना है।” घर में प्रवेश करते ही अजीत बोला।
बेटे के चेहरे पर निराशा और गुस्सा के भाव देखकर दीपक बाबू समझ गए कि उनकी आशंका सच निकली।
“जब रूपये नहीं देने थे तो मुझे बुलाया क्यों?”अजीत ने गुस्से से कहा।
“कोई बात नहीं बेटा। लेकिन तुम दाखिला अवश्य लोगे।” दीपक बाबू ने बेटे को पास बिठाकर कहा।
“हेलो, सुभाष! मुझे पच्चीस हजार रूपये चाहिए ।मेरी तनख्वाह मिलते ही लौटा दूँगा। बेटे का दाखिला कराना है इंजीनियरिंग कॉलेज में।” दीपक बाबू ने अपने अभिन्न मित्र को फोन करके कहा।
“अरे वाह।यह तो खुशी की बात है।अपना अजीत टैलेंटेड तो है ही।तुम्हारा अकाउंट नंबर दो, तीस हजार रूपये ट्रांसफर कर देता हूँ।”
सुधा की आँखें गीली हो चुकी थीं।

— निर्मल कुमार दे

निर्मल कुमार डे

जमशेदपुर झारखंड [email protected]