कुदरत का रूप
कुदरत क्यूँ हमसे नाराज है
ये कैसा वर्षा का आगाज है
किस भूल की सजा दे रही है
गाँव शहर सब डूबो रही है
बह रही है गाँव शहर जवार
कहर से मची है यहाँ हाहाकार
नभ से हो रही मेघों का प्रहार
मजबूर दीख रही है सरकार
जन जीवन की ले रही है प्राण
डूब गये फसल और समान
लाचार हो गये है अब इन्सान
भूल की हो रही है इम्तहान
प्रकृति के साथ की है मनमानी
कुदरत की मिटा दी जग कहानी
कहर बरस रही पहाड़ मैदानी
खत्म हो जायेगी दुश्मन की नानी
कुदरत से छैड़खानी हो रही भारी
विकास करने में मति गई है मारी
पर्वत पे करता है जो तुम विस्फोट
कुदरत दे रही मानव पे भारी चोट
— उदय किशोर साह