गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

रह गयी आंखें तरसकर चांद के दीदार को।
पूनमी अंबर लिए इक चांदनी के हार को।
जान तो तुम पर छिड़कता ही रहा है आज भी,
भूलकर बैठी हुई है जाने क्यों ख़ाकसार को।
बढ़कर तुमको चूम लेगी ही सफलता हर क़दम,
तुम अगर पहचान लोगे इस समय की धार को।
हर कदम पर झेलनी पड़ती मुसीबत आपको,
नाव जब फंस जाये मेरी दोष क्या मझधार को।
आज इतना चिड़चिड़ापन तुममें कैसे आ गया,
हो गया क्या आपके उस मखमली व्यवहार को।
तुम हमारी जिन्दगी हो बस! तुम इतना जान लो,
भूल जाऊं क्यों भला बीते हुए अभिसार को।
लूटते ही जा रहे हो छोड़कर धर्म और ईमान,
चेहरा कैसे दिखा पाओगे तुम इस संसार को।
ऐसे लोगों को मिले सम्मान न इज़्ज़त कहीं,
भूल जाते हैं जो खुद पर ही किये उपकार को।

— वाई. वेद प्रकाश

वाई. वेद प्रकाश

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