कविता

अभिभावक और बच्चे

हर घर के होते अपने कुछ नियम और संस्कार,
प्रेम एकता से ही संवरता “आनंद” सुखी परिवार,
सभी बच्चों से अभिभावक करते हैं अनंत प्यार,
पर बच्चे रूठ जाते, दिल में छुपाते दर्द हज़ार,
जबकि दिए जाते हैं सबको कुछ स्वतंत्र अधिकार ।

मगर आजा़दी का मतलब ये कतई नहीं…..
चलेगी बस चौबिसो घंटे तुम्हारी ही मर्ज़ी,
सीमाओं से परे धन की फ़िज़ूल ख़र्ची,
बेहिसाब बाहर घूमने फिरने की अर्जी,
घर के खाने से मुंह मोड़ बनावटी एलर्जी ।

नये युग का आकर्षक तुम्हें खींचे जोरदार,
चाहे चल रहा हो भेड़चाल सारा ही संसार,
जिद क्रोध से तांडव मचाओ घर में हर बार,
अमर्यादित उटपटांग अलग हो तुम्हारा व्यवहार,
दोस्तों की दुहाई मनमानी न होगी स्वीकार ।

माता पिता चाहते बनो तुम जग पूजनीय उपकारी,
संस्कारों से सुसज्जित, कर्मठ और सदाचारी,
बनो श्रेष्ठ आदर्शवान अनुकरणीय व्यवहारी,
भगाओ अंधाधुंध आधुनिकता की बीमारी,
समय का करो सदा उचित उपयोग हर बारी ।

तुम्हें तकलीफ़ में देख रोता ये मन बहुत हर बार,
तुमको बचाते जग की बुरी नज़रों से करो एतबार,
हां कुछ गलतियां हमसे भी हुई अंजाने में कई बार,
सीख रहें हैं साथ तुम्हारे जीवन का पाठ बार-बार,
समझ कर देखो इस आंतरिक प्रेम को एकबार ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु