ग़ज़ल
धूल आदर्शों पर पड़ी चुपचाप
भीड़ आखिर में छँट गयी चुपचाप
जाने किस मिट्टी की बनी थी वो
सरनिगूँ ही खड़ी रही चुपचाप
हक़ में उसके न थी कोई भी बात
खिड़कियाँ बंद और सभी चुपचाप
लूटते ही रहे दरिन्दे और
बेज़ुबां लुटती ही रही चुपचाप
— डॉ. पूनम माटिया
धूल आदर्शों पर पड़ी चुपचाप
भीड़ आखिर में छँट गयी चुपचाप
जाने किस मिट्टी की बनी थी वो
सरनिगूँ ही खड़ी रही चुपचाप
हक़ में उसके न थी कोई भी बात
खिड़कियाँ बंद और सभी चुपचाप
लूटते ही रहे दरिन्दे और
बेज़ुबां लुटती ही रही चुपचाप
— डॉ. पूनम माटिया