उपन्यास : शान्तिदूत (इक्यावनवीं कड़ी)
कृष्ण को कर्ण की मानसिक अवस्था देखकर दुःख हुआ। उन्होंने यह कल्पना तो की थी कि अपने जन्म का रहस्य जानने के बाद कर्ण को मानसिक आघात लगेगा, लेकिन वह आघात इतना तीव्र होगा, इसकी आशा उनको नहीं थी। अब यह उनका दायित्व था कि कर्ण को सामान्य स्थिति में लायें। इसलिए उन्होंने कर्ण के कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना भरे स्वर में कहा- ‘वीरवर, अपने जन्म का रहस्य जानने के बाद आपको जो मानसिक आघात लगा है, उसको मैं समझ सकता हूँ। इसका दुःख होना स्वाभाविक है। लेकिन बहुत सी ऐसी घटनायें होती हैं, जिन पर हमारा कोई वश नहीं चलता। यह नियति का चक्र होता है, जिसमें सबको फंसना पड़ता है। इससे कई बार अवांछनीय कार्य भी करने पड़ जाते हैं।’
कृष्ण कुछ क्षण रुके। उन्होेंने कर्ण पर अपने शब्दों के प्रभाव का अनुमान लगाया। यह तो स्पष्ट था कि कर्ण उनकी बात को ध्यान से सुन रहे हैं और धीरे-धीरे सामान्य स्थिति में आ रहे हैं। इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए कृष्ण ने फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘अंगराज, आप सूर्यदेव के पुत्र और उपासक हैं। सदा प्रकाशित रहना आपका स्वभाव है। आप निराशा के अंधकार से निकलकर आशा के प्रकाश में आइए। बुआ ने अपनी विवशता में आपके साथ जो अनुचित कार्य किया था, अब उसको लौटाया तो जा नहीं सकता। लेकिन उसके कारण आपके जीवन में जो व्यतिक्रम आ गया था, उसे अवश्य ठीक किया जा सकता है।’
कृष्ण का यह वाक्य सुनकर कर्ण चौंका। वह सोच रहा था कि अब इतने वर्षों बाद मेरे सामने यह रहस्य खोलने का कुंती का उद्देश्य यही हो सकता है कि मैं पांडवों के विरुद्ध युद्ध न करूँ। लेकिन इससे मेरे साथ जीवनभर जो अन्याय किया गया है, उसका परिमार्जन कैसे होगा। वह कृष्ण की ओर भेदक दृष्टि से देखने लगा। कृष्ण लगातार उसकी ओर देख रहे थे। जब कृष्ण आगे कुछ नहीं बोले, तो उसे बोलना ही पड़ा- ‘अब आप मुझसे क्या चाहते हैं, वासुदेव?’
कृष्ण ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा- ‘मैं आपसे कुछ नहीं चाहता, अंगराज! बुआ अवश्य चाहती हैं कि आप उनको अपनी माता के रूप में स्वीकार कर लें और नया जीवन प्रारम्भ करें।’
‘कैसा नया जीवन, केशव? मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन सूत-पुत्र के रूप में बिता दिया है। अब उम्र के इस अन्तिम पड़ाव पर क्या नया जीवन प्रारम्भ होगा?’
‘वीरवर! आप बुआ कुंती के कानीन पुत्र होने पर भी महाराज पांडु के पुत्र माने जायेंगे। इस प्रकार आप ज्येष्ठ पांडव होने के कारण कुरुवंश के सिंहासन के अधिकारी हैं। यदि आप इसे स्वीकार कर लेते हैं, तो आपको वह अधिकार मिल जाएगा, जिससे आप अभी तक वंचित हैं। आपको अपने सगे भाइयों से युद्ध नहीं लड़ना पड़ेगा। बुआ यही चाहती हैं कि सगे भाई आपस में लड़कर न मरें।’
‘मैं आपकी बात समझ रहा हूँ, वासुदेव! महारानी चाहती हैं कि मैं अर्जुन से युद्ध न करूँ। उनको मेरी नहीं अर्जुन की चिन्ता है। इससे पहले कभी उन्हें मेरे ऊपर ममता नहीं आयी। यदि उन्होंने दीक्षांत प्रदर्शन के समय ही यह सत्य सबको बता दिया होता और मुझे अपने पुत्र के रूप में अंगीकार कर लिया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता। तब न पांडवों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जाता और न पांचाली का अपमान होता। परन्तु अब बहुत देर हो चुकी है, यादवराज!
‘मेरी पहचान छिपाने से कितना बड़ा अनर्थ हुआ है, केशव! क्या मेरे द्वारा पक्ष बदल लेने से उन सब दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को उलटा या बदला जा सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।’
कृष्ण समझ रहे थे कि कर्ण की बातों में बहुत बल है। उसका एक-एक वाक्य कठोर सत्य है। वे बोले- ‘आपकी बातें सत्य हैं, अंगराज! भूतकाल में जो घट चुका है, उसे बदला या लौटाया नहीं जा सकता। लेकिन उसके द्वारा हो गयी हानि को न्यून किया जा सकता है। आपकी जन्मदायिनी माता का आपसे यह आग्रह है कि आप पुरानी गलतियों को भूलकर उन्हें माता का अधिकार दें और अपने भाइयों को बड़े भ्राता का स्नेह दें।’
‘केशव, अगर मैं ऐसा करने के लिए स्वतंत्र होता, तो अवश्य ऐसा ही करता। कौन अभागा अपनी जन्मदायिनी माता के आंचल से दूर रहना चाहेगा? लेकिन अब मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। मैं अपने वचनों से बंधा हुआ हूँ।’
सब कुछ जानते हुए भी कृष्ण ने पूछा- ‘कैसे वचन, वीरवर!’
‘आप जानते हैं, वासुदेव, कि मैंने दुर्योधन को अपना जीवन अर्पित कर दिया है। मैंने उसके साथ अखंड मित्रता की शपथ ली है। जिस समय सारा संसार मुझे सूत-पुत्र कहकर धिक्कार रहा था, तिरस्कार कर रहा था, उस समय दुर्योधन ने मुझे अपना मित्र बनाया, अंग देश का राज्य देकर मुझे राजाओं की पंक्ति में बैठाया, हर प्रकार से मुझे सम्मान दिया। मैं उस सम्मान का बदला अपने प्राण देकर भी नहीं चुका सकता। अब जबकि उसे युद्ध में मेरी सहायता की आवश्यकता है, तो मैं उसका साथ छोड़कर विश्वासघात नहीं कर सकता।
‘केशव! मैंने दुर्योधन को वचन दिया है कि मैं युद्ध में पांडवों को परास्त करके हस्तिनापुर और इंन्द्रप्रस्थ का सम्पूर्ण राज्य उसको सौंप दूंगा, ताकि वह निष्कंटक शासन कर सकें। मैं इस वचन से पीछे नहीं हट सकता।’
‘हूँ।’ कृष्ण ने केवल हुंकारा भरा।
‘मित्रता के इस सम्बंध की रक्षा के लिए मैंने कौन सा कार्य नहीं किया। मैं शकुनि से हृदय से घृणा करते हुए भी उसके षड्यंत्रों का भाग बनता रहा। पांडवों को छल से समाप्त करने का समर्थक न होते हुए भी उसका मौन समर्थन करता रहा। भरी सभा में पांचाली सहित उन महात्माओं का अपमान मैंने किया। ये सारे पाप मैंने अपने वचन की रक्षा के लिए किये। अब जीवन की अंतिम बेला में मैं इस वचन को नहीं तोड़ सकता। मैंने जो पाप किये हैं, उनका दंड मुझे भुगतने दीजिए, केशव!’
‘हूँ।’ कृष्ण के स्वर में निराशा का भाव था।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
कर्ण के लिए बहुत दुभिदा भरी घड़ी है , ऐसी स्थिति में अन्धकार ही दिखाई देता है .
सही कहा, भाई साहब. कर्ण बहुत महान था. उसने बहुत सोच-विचार करके कुंती का अनुरोध अस्वीकार किया था. अगली कड़ी में पढ़िए.