कविता

आधुनिक घुसपैठिए

सदियों का संताप
अब ठहर सा गया है।
घरौंदो से निकल कर
आधुनिकता की दहलीज़ पर
बह सा गया है।
तराशा हुआ आदमी
महानगर की गुलामगिरी में
ढह सा गया है।
भौतिकता का घुसपैठिया
नगर से गांव तक
छा सा गया है।
विश्वबंधुत्व
मुआयने के शिखर में
बंगड़ मेघ की भांति
रह सा गया है।

— डॉ. राजीव डोगरा

*डॉ. राजीव डोगरा

भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा कांगड़ा हिमाचल प्रदेश Email- [email protected] M- 9876777233