बेबसी है, लाचारी है
बेबसी है,लाचारी है,और दहशत का आलम है
यहाँ हर कोई खौफजदा है,पल–पल मातम है
इंसानों की खाल में यहाँ भेड़ियों का आतंक है
इंसानी मुखौटों मैं, छिपा कोई वहशी घातक है
इंसानों की इंसानियत अब, हो रही तार–तार है
क्यों यहाँ हर पल हो रही दरिंदगी ये बार–बार है
क्यों हर जगह–जगह घुम रहें शिकारी खूंखार है
कोई कैसे बचेगा इनसे यह तो वहशी दुराचार है
जमीर इंसानों का, क्यों हो रहा इतना खुद्दार है
यहाँ हर एक शख्स, बेवजह हो रहा शर्मशार है
जहाँ होता था सन्नाटा, वहाँ चीखों की पुकार है
और शमशानो में धधक रहा अंगार ही अंगार है
— अशोक पटेल “आशु”