इक शौहरत से भरम में आ गए
थे बढ़ते रहे कदम मंज़िल के वास्ते।
फिर छोड़ अपनों को चले अपने रास्ते।
कुछ पा लिया तो हो गया भ्रम ऐसा,
मैं हो गया सफल कोई न मेरे जैसा।
बीत गए यूँ ही कितने महीने बरस ,
आया न फिर भी अपनों पे तरस।
लगता जैसे काट रहा था अपनों संग सज़ा
गाँव में कहाँ था शहर सा फिर मज़ा।
मेरी खबर में माँ, बाबू ढूँढते थे पता,
कहते क्यों भूला बता हमारी खता।
मैं मदमस्त था चूर अपनी शोहरत में,
बहुत मज़ा आ रहा था धन दौलत में।
वक़्त पलटा, माँ, बाबू फसले उगाते थे,
शहर में बीमारी ने बंद किए रोज़गार के रास्ते।
सब बंद हो गया था, मेरा सब कुछ खो गया था,
दौलत ने साथ छोड़ा, बेगानों ने तन्हा किया था।
हालात बदतर हुए सच्चाई तब समझ आई,
अपने माँ, बाबू की वो सीख याद आई।
अपनों संग हों तो इतना गम नहीं होता,
अगर थोड़ा भी हो वो भी कम नहीं होता।
इक शोहरत से भरम में आ गए थे हम,
प्यार को भूल झूठी शान में हो गए थे गुम।
— कामनी गुप्ता