कविता – खुशियां बेशूमार मिले
यही उम्मीद थी,
बस इल्म नहीं था कि,
कुछ हासिल होगी एक दिन।
इंतजार खत्म हो गई,
गिनते रहे हम दिन।
यह तो एक फ़साना लगा,
सोचते रहे हरेक दिन।
उम्मीद बनाएं रखने की ज़िद थी हमारी,
हम गिनते रहे आएंगी,
एक उम्मीद वाली दिन।
दोस्तों को भी इस बात का,
इल्म नहीं हो सका।
बस पूछते रहे अपने अज़ीज़ दोस्तों से,
उन्हें विश्वास था कि,
अच्छे दिन आएंगे एक दिन।
समन्दर पार कर,
हमने सोचा कि चलो कुछ तो हासिल किया,
बस तक़दीर बदलने से,
परहेज़ करते रहे हरेक दिन।
उथल-पुथल से जी घबराने लगा,
आसपास नज़र आने वाले लोगों से कतराने लगा।
डर था कि कुछ,
अनहोनी न हो यहां,
बस खुशियां भरपूर मिले,
इसी ग़म में,
अपने पराए से दूर रहने लगा।
आज़ भी उम्मीद पर जिन्दा हूं,
रब से खैरियत की उम्मीद करते रहता हूं।
खुशियां बेशूमार मिले,
बस यही सोचता रहता हूं।
— डॉ. अशोक, पटना