कविता – अपना घर।
खूबसूरत बगीया है,
समन्दर का रहस्य।
सही मायने में है,
जन्नत है हमेशा जो है नमस्य।
खुशियां बेशूमार मिले,
शान्त यहां जो बैठूं मैं।
तबीयत लगने लगा है अब,
घर में आऊं जैसे तब।
इसकी सोहबत में रहना ही,
खुशियां देती हमें अपार।
जब जब हमें मिला है ठोकर,
बना यही घर तब,
मेरा एक सुखद संसार।
छोटी सी गुदगुदी है देती,
सुन्दर बगिया में दिखता एक रंग।
घर पर आते ही मिलता,
उल्लास से भरपूर उमंग।
सुख-समृद्धि बनी हुई है,
आज़ भी है एक पहेली।
अपने हक़ की पहली पसंद है,
फसाने सी अपनी हवेली।
जन्नत की दुनिया में लगता,
सुन्दर बगिया बनकर है तैयार।
इस घर की दुनिया के आगे,
बड़ी हवेलियां है बेकार।
उम्मीदों पर खरा उतरने में,
सबसे बेहतर है यह संसार।
घर पर ही मिलता है सबको,
खुशियों का हर दीदार।
— डॉ. अशोक, पटना