हे राम, मैं हैरान! (मधु हाइकू)
हे राम, मैं हैरान;
देखकर तेरा मकान!
पाकर मुक़ाम,
झाँक कर मचान;
चलते तीर कमान,
सब लहूलुहान!
बिना इत्मीनान,
ना कुछ सरोकार;
ना काम ना धाम,
बिन बात परेशान!
लूटने लपकने,
लामबंद करने;
सुधार करने,
बिना खुद सुधरे!
अधर में लटके,
अटके चटके;
पटक के पटके,
पाखण्ड में छिटके!
बेसहूर सिहरे,
बेकसूर बिखरे;
बिना निखरे,
बिलाबजह बने बुरे!
बिके सकपकाए,
टपके समय आए;
सोच ना पाए,
क्यों यहाँ आए!
समाज सेवा में उलझे,
खुद को बिना समझे;
कुछ लेने कुछ बोने,
कर्मों की फसल काटने!
बिन बात डरे,
मायाजाल में पज़रे;
देह बेहाल करे,
विदेही बिना जाने!
चादर ताने, बिना जाने;
टकरा के तकरार जाने!
ठाने मनमाने,
क्या क्यों न जाने;
गाए कुछ गाने,
गोलोक के परवाने!
गुप्त हैं कारनामे,
सुप्त हैं दीवाने;
लगे जब चहचहाने,
पागए खजाने!
स्वप्न में जो लखा,
चखा और मखा;
क्या वहाँ पका,
यहाँ आके परखा!
जलते चलते जगत का जाल;
जगने पर लगता सपने समान!
अज्ञान में अज्ञात में बह के;
जान पाए क्यों रहे दहके!
लगे हैं सब लूटने,
लुटने लटकने;
जेब काटते,
अपनी जेब कतरवाने!
— गोपाल बघेल ‘मधु’