कविता

अबकी बार…

सुनो इस बार जब आना
मेरी आँखों को नींद दे जाना
अपलक जो रहती है तुम बिन
उनमें सपन सलोने दे जाना।

मेरी वेणी के फूलों को
अबकी बरस भी सुलझाना
सूख गए वह गजरे सारे
उनमे फिर प्राण भर जाना।

टूट गई थी ज़ब वो चूड़ी
थामी थी जो मेरी कलाई
अबकी बार भी इस कलाई पर
वही निशान फिर दे जाना।

अपने स्पर्श से फिर अबकी
वही उष्णता दे जाना
माथे की बिंदी जो लगी शर्ट पर
उसे यूं ही तुम ले जाना।

अबकी बार जब तुम आना
एक अदद निशानी दे जाना
बगिया में जैसे खिले सुमन
अंगना में भी सुमन खिला जाना।

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]

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